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अनुकंपाऽधिकारः।
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टोका में पिण इम कह्यो मत मार कहां ते हिंसक जीवां ना कार्य नी अनुमोदना लागे। ते टीका लिखिये छै ।
"बध्या श्चौर पर दारिका दयो ऽ अध्या वा तत्कर्मानु मति प्रसंगा दित्येषं भूतां वाचं स्वानुष्ठान परायण स्साधुः पर व्यापार निरपेक्षो निसृजे त्तथाहि सिंह ग्यात्र मार्जारादीन् परसस्त्र व्यापादयन परायणान् दृष्ट्वा माध्यस्थ मवलंवयेत्"
__ इहां शीलाङ्काचार्य कृत टीका में तथा बडा रव्या में पिण कह्यो। जे चोर पर दारादिक ने बधवा योग्य कह्यां तेहनी हिंसा लागे। तथा वधवा योग्य नहीं, ते माटे मत हणो इम कयां तेहना कार्य नो अनुमोदना लागे। ते माटे हिंसक जीव देखो मार तथा मथा मत मार न कहिणो। मध्यस्थ भावे रहिणो। एहवू कहy, इहां सिंह व्याघ्रादिक हिंसक जीव कह्या-ते आदिक शब्द में सर्व हिंसक जीव आव्या छै । तेहनों राग आणी तथा जीवणो बांछी ने मत मार पिण न कहिणो तो भसंयती रो जोवण बांच्यां धर्म किम हुवे। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो।
इति ६ बोल सम्पूर्ण।
तथा गृहस्थ ने माहो मांही लड़ता देखी ने एहने मार-तथा मत मार ए साधु ने चिन्तवणो नहीं इम कह्यो ते इहां सूत्र पाठ कहे हैं।
आयाण मेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए वसमाणस्स इह खलु गाहवती वा जाव कम्मकरी वा अन्न मन्नं अकोसंतिवा वयंतिवा रुभंतिवा उदवंतिवा अह भिक्खू उच्चावयं मणं णियच्छेजा एते खलु अन्नमन्नं उकोसंतुवा मावा उक्को. संतुवा जाव मावा उद्दवंतु ।
(भाचारांग भु.प. उ. १)