________________
भ्रमावश्वसनम।
-
इति स्थान विधि रुक्तः साम्प्रतं गान स्थान विधि माह तत्थरणंति. तत्र मार्गे वसत्यादौ वा कश्चित् वधार्थ वधनिमित्तं गहायति--गृहीला खड्गादिक मिति शेषः, प्रागत् । गो अवलंबिताया--अवता ययितुम्-यापयितुं प्रत्यवतम्बयितुं पुनः पुन समाधिनु यर्या मनतिक्रम्य गच्छेत् । एतायता विद्यमानोऽपि नाति शीबंयायाल।
हाटी में रिण इम कायो-जे बध में अर्थे खड्गादिक ग्रही ने आधे तो तेहना खड्गादिक अबलम्बदा पकड़वा न कल्प। पिण इम न कह्यो-यांहि पकड़ ने वाहिरे काड़े तो निकलवो कारने ते माटे वाहिनों अर्थ करे ते मृपावादी छै। ओं जो अनि माहि थी वांहि पकड़ी ने वाहिरे काढ़े तेहने अर्थे निकले तो इम क्यूं न कयो ने पुरुष नी दया ने अर्थे वाहिश विकलको कल्पे। रिण वाहिर निकलवा रो पाउ तो चाल्यो नहीं । इहां तो इन कयो जे पडिलाधारी रहे ते उपाश्रय स्त्री पुरुष आवे तो “नो से कप्पा तं पडुच निक्खभित्तपवा” ए निकलवा रो पाठ तो "निक हित्तएवा' इम हुवे । तथा चली आगे कहो. जे पड़िताधारी रहे ते उपाश्रय में किये कोई अग्नि लगाये तो “नो से कप्पर तं पडुश निक्खमित्तएवा" ए निकरुया रोपाट कल्यो । तिम तिहां निकलवा रो पाठ करो नहीं। जो ते पुरुष नी दया में अर्थ निकले तो रहयो पाठ कहिता “कपा से तं पडच निखभित्तया" इम निकलवा रोपाठ चाल्यो नहीं । अनें तिहाँ तो “आहारियं लिखप" ए पाठ छै। "आहारियं रियतए” अनें “शिक्षमित्तए” ए पाठ ना अर्थ जुआ जुअछ। “निक्ख. मित्तर” कहितां निकले । ए निकलवा रो तो पाउ फूल थी ज न काल्यो । अनें “लारियं रिक्त्तर” ए पाठ कह्यो तेहनों अर्थ कहे छै। “अहारिस" इहाँ मज (ऋज-गतौस्थर्ये च) धातुःछै। ते गो अ स्थिर भाव रूप ए के अर्थाने शिवे छै। जे गी अर्थ में विधे हुवे तो आगलि चालवा रो विस्तार छ। ते माटे ए चालना री विधि सप्तचे वताई। शिण ते वध परिषह मांहि थी चालवा रो समास नहीं। अमें स्थिर भाव होगा इस अर्थ करको। पडिमाधारी में हणवा में अर्थ खड़गादिक प्रही ने शावेतो तेहना खड्गादिक अबलम्ब वा न कल्पे । “कप्पह से अहानिय रिवत्तएकरपे तलने शुभ अध्यवसाय ने विषे सिर पणे रहियो पिण माहिला परि.