________________
अनुकम्पाऽधिकारः।
१२५
अथ अठे तो इम कहो-सारथी रा बवन सांभली ने घणा प्राणी रो विनाश जाणी में ते महा प्रज्ञावान् नेमिनाथ चिंतवे। "साणु क्कोस" .कहितां करुणासहित "जिएहि' कहितां जोवां में विषे “उ” कहितां पाद पूर्ण अर्थे-इम अर्थ छै । "साणुकोसे जिएहिउ" ए पद नो अर्थ उत्तराध्ययन री अवचूरो में कियो। ते लिखिये छै। “स भगवान् सानुक्रोशः सकरुणः उः पूर्णे' एडवो अर्थ अवचूरी में कियो। तथा पाई टीका में तथा विनयहंसगणि कृत लघु दीपिका में पिण इमज कियो ते शुद्ध छै। अनें केतला एक टब्बामें कह्यो “सकल जीवां ना हितकारी" तेहमों न्याय-इम प्रथम तो अवचूरी, पाई टीका उक्त दीपिका. में अर्थ नथी। ते माटे ए दव्यो टोका नों नथी। तथा सकल जीवां ना हितकारी कहिवे. ते सर्ब जोवां में न हणवा रा परिणाम ते वैर भाव नथी, न हणवा रा भाव तेहिन हित छै। पिण जीवणो बांछे ते हित नथी। प्रश्नव्याकरण प्रथम संघर द्वारे कह्यो। “सब्ब जग वच्छलयाए" इहां कह्यो सर्व जग ना “वच्छल” कहिये हित. कारी तीर्थङ्कर । इहाँ सर्व जीवां में एकेन्द्रियादिक तथा नाहर चीता बघेरा सर्प आदि देइ सकल जीवां में सुपात्र कुपात्र सर्व आया। ते सर्व जीवां ना हितकारी कह्या। ते सर्व जीव न हणवा रा परिणाम तेहीज हित जाणवो। तथा उत्तरा. ध्ययन अ० ८ में कह्यो "हिय निस्सेसाय सव्व जीवाणं तेस्सिं च मोक्खणठाए" इहाँ कह्यो “हिय निस्सेसाय" कहिये मोक्ष में अर्थ सर्व जीव ने एहवो कह्यो। ते भाव हित मोक्ष जाणवो। अनें चोरों ने कर्मा सूं मुकावण अर्थे कपिल मुनि उपदेश दियो। तथा उत्तराध्ययन अ० १३ में चित्त मुनि ब्रह्मदत्त में हित ना गवेषी थकां उपदेश दियो। इहां पिण भाव हित जाणवो। तथा उत्तराध्ययन अ० ८ गा०५ "हिय निस्सेसाय बुड्ढि बुच्चत्थे' जे काम भोग में खूता तेहनी बुद्धिहित अनें मोक्ष थी विपरीत कही। इहां पिण भाव हित मोक्ष मार्ग रूप तेहथी विपरीत बुद्धि जाणवी । तथा उत्तराध्ययन अ०६ गा० २ “मित्तिभुएसुकप्पई” मित्र पणो सर्व प्राणी में विषे करे। इहां एकेन्द्रियादिक जीव ने न हणे तेहीज मिल पणो । तिम "जिएहि उ" रो टया में अर्थ हित करे तेहनी ताण करे। तेहनो उत्तर--- सर्व जीव में नहि हणवा रा भाव कोई सूं बैर बांधवा रा भाव नहीं. तेहीज हित जाणवो। अने अवचूरी तथा पाई टीका में तथा उत्तर दीपिका में हित नों अर्थ कियो नथी। “साणुकोसे जिएहिउ" साणुकोसे कहितां करुणासहित “जिएहि"