________________
१०४
भ्रम विध्वंसनम् । .
आंबो चूसता ने साधु अनुमोदे नहीं. तिम आहार देता ने अनुमोदे नहीं तो ते दान में धर्म किम कहिये । डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति ३४ बोल सम्पूर्ण।
केतला एक एहयो प्रश्न पूछ। जे पडिमाधारी श्रावक ने दीधां काई हुवे। तेहलो उत्तर ---पडिगाधारी पिण देशत्रती छ। तेहना जेतला २ त्याग ते तो व्रत छै। अने पारणे सूझता आहार नो आगार अयत छै ते अवृत सेवे छै, ते पड़िताधारी । तेहनें धर्म नहीं तो जे अवृत सेवावण वालाने धर्म किम हुई । गृहस्थ ना दान में साधु अनुमोद तो प्रायश्चित आवे तो पडिमाधारी श्रावक पिण गृहस्थ छै लेहनां दान अनुमोदन वाला ने ही पाप हुवे, तो देणवाला ने धर्म किम हुवे । तिवारे कोई कहे ए पडिमाधारी श्रावक ने गृहस्थ न कहिये। एहने सूत्रमें तो "समणभुए" कह्यो छै । तेहनों उत्तर-जिम द्वारिका में "देवलोक भुए" कही पिण देवलोक नथी। एतो उपमा कही छै। तिम पडिमाधारी ने पिण “समण भुए" कह्यो। ते उपमा दीधी छै। ते ईर्यादिक आश्रय पिण गृहस्थपणो मिट्यो नहीं। संथारा में पिण अनन्द थापक ने गृहस्थ कहो , ते पाठ लिखिये छ ।
तत्तेगां से आणंद समणो वासए भगवं गोयमं तिकबुत्तो मुछाका पादेसुवंदाति हामंसति २ ता एवं क्यासी-- अस्थिणं भंते ! गिहिणो गिहिवास मज्झे वसन्तस्स अोहिणाणे समुप्पज्जइ. हंता अस्थि ॥८३॥
- जइह संने ! गिहिणो जाव समुप्पज्जइ. एवं खलुभंते ममंविगिहमा गहमके वसंतरस मोहिणाणे समुप्पो पुरस्थिमेणं लवण सबुद्धे पञ्च जोयण सयाई जाव लोलुए नरयं जागामि पानामि ॥८४॥