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दानाऽधिकारः।
जोवोनी. कुपात्र दान में चौड़े भारी कुकर्म कह्यो। छव काय रा शस्त्र ते कुपात्र छै । तेहनें पोष्यां धर्म पुण्य:किम निपजे । डाहा लुवे तो विचारि जोइजो।
इति २१ बोल सम्पूर्ण।
तथा ब्राह्मणां में पापकारी क्षेत्र कह्याछै । ते पाठ लिखिये है। कोहो य माणो य वहो य जेसिं
कोसं अदत्तं च परिग्गहें च त माहणा जाइ विजा विहूणाताईतु खेत्ताइ मुपावयाई।
( उत्तराध्ययन अ० १२ गा. २४ )
को० क्रोध अने मान च शब्द हुन्ती माया लोभ. बं० बध प्राणघात जे श्राह्मण में पाले भने मो० मृषा अलीक नों भाषवो अण दोधां नों लेवो च शब्द थी मैथुन अनें परिग्रह. गाय भैस भूम्यादिक नों अंगीकार करवो जेहने ते ब्राह्मण जो ब्राह्मण जाति अने वि० चउदे १४ विद्या तेणे करी. वि० रहित जाणवा. अने क्रिया कर्म ने भागे करी चार वर्ण नी अवस्था था इं. ता. ते जे तुमने जाण्या वर्ते छै. लोका माहे. खे० ब्राह्मण रूप अक्षत्र तेवू निश्चय असि पाषुधा कै. क्रोधादिके करी सहित ते माटे पाप नों हेतु छै. पिण भला नहीं।
अथ अठे ब्राह्मणां ने पापकारी क्षेत्र कह्या। तो वीजा नो स्यूं कहियो। इहां कोई कहे ए बचन तो यक्षे कह्या छै तो ब्राह्मणा ने क्रोधी मानी मायी लोभी हिस्रादिक पिण यक्षे कहा। जो ए सांचा तो उवे पिण साचा छै। तथा सूर्यगाङ्ग श्रु० १ अ०६ गा० २३ गृहस्थ ने देवो साधु त्याग्यो ते संसार भ्रमण नों हेतु जाणी त्याग्यो कह्यो छै। तथा दशवैकालिक अ० ३ गा० ६ गृहस्थ नी व्यावच करे करावे अनुमोदे तो साधु ने अनाचार कह्यो। तथा निशीथ उ० १५ बो० ७८-७१ गृहस्थ ने साधु आहार देवे देता ने अनुमोदे तो चौमासी प्रायश्चित कह्यो। तथा मावश्यक भ० ४ कह्यो साधु उन्मार्ग तो सर्व छांड्यो-मार्ण भङ्गीकार कियो । सो