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दानाऽधिकारः
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दसविहे सत्थे प० तं०सत्थ मग्गी विसं लोणं सिणंही खार मंविलं । दुप्पउत्तो मणो बाया काओ भावो य अबिरई ॥
ठाणाङ्ग ठाणे १०)
६० दश प्रकारे. स. जेणे करी हणिये ते शस्त्र. ते हिंसक बस्तु है भेद द्रव्य थकी अने भाव थकी. तिहां द्रव्य थी कहे थे। सशस्त्र अग्नि थको अनेरी अग्नि है ते स्वकाय शस्त्र पृथ्व्यादिक नो अपेक्षा पर काय शन कि विष स्थावर-जङ्गम लो ल पण ते मीठो. सिर स्नेह ते तेल घृतादिक खा० खार ते भस्मादिक. प्रा० अाछणादिक. दु. दुष्प्रयुक्त पाडुश्रा मन. बा० बवन. का. इहां काया हिंसा ने विषे प्रवर्ते इं ते भणी खड्गादिक शत्र पिण काया शस्त्र में प्रावे. भा० भावे करी शाच कहे है। अ.अव्रत ते अपचखागा अथवा अम्रत रूप भाव शस्त्र।
अथ अठे १० शस्त्र कथा तिण में अग्रत में भाव शस्त्र कह्यो। तो जे श्रावक ने अव्रत सेवायां रूड़ा फल किम लागे। ए तो अव्रत शला छै ते मारे जेतला २ श्रवक रे त्याग छै ते तो व्रत छै। अनें जेतलो भागार छै ते सर्व अत्रत छै। आगार अत्रत सेव्यां सेवायां शस्त्र तीखो कीधो कहिये पिण धर्म किम कहिये। डाहा हुवे तो विचारि जोइजो ।
इति २७ बोल सम्पूर्ण ।
केतला एक कहे-अव्रत सेव्या धर्म नहीं परं पुण्य छै। ते पुण्य थी देवता थाय छै अत्रत थी पुणय न बंधे, तो धावक देवलोक किसी करणी थी जाय। तेहनो उत्तर–ए तो श्रावक व्रत आदखा ते व्रत पालतां पुणध बंधे। तेहथी देवता हुवे पिण अव्रत थी देवता न थाय । ते सूत्र पाठ कहे छै ।
__ बाल पंडिएणं भंते ! मणसे किं नेरइया उयं पको जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ. गोयमा! णे ऐडया