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भ्रम विध्वंसनम् ।
उन्मार्ग थी पुण्य धर्म किम नोपजे । तथा उत्तराध्ययन अ० २६ को साधु श्रावक सामायिक में सावद्य योग त्यागे तो जे सामायक में कार्य छोड्यो ते सावद्य कार्य में धर्म पुण्य किम कहिये । ए धर्म पुण्य तो निरवद्य योग थी हुवे छै । जे सामायक में अनेरां ने देवा रा त्याग किया, ते सावद्य जाणी ने त्याग्यो छै, ते तो खोटो छै तरे त्याग्यो छै । उत्तम करणी आदरी माठी करणी छांडी है। तो ए सावदय दान सामायक में त्याग्यो तिण में छै के आदस्यो तिण में है । हा वे तो विचार जोइजो ।
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इति २२ बोल सम्पूर्ण |
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तथा भगवती श० ८ उ० ५ तथा उपासक दशा अ० १ पनरे कर्मादान कह्या छै, ते पाठ लिखिये छै ।
समणो वासरणं पराणरस्स कम्मा दाणाति जाणियव्वाति न समारियव्वाति तं जहा इंगाल कम्मे व कम्मे साडी कम मे. भाडी कम्मे फोडी कम्मे दंत बडिज्जेरस बणिज्जे. केस बरिगज्जे विस वणिज्जे लक्खणिज्जे. जंत पीलण कम्मे निल्लंग कम्मे दवग्गिदावण्या. सर दह तड़ाग परि सोसलिया. असईजण पोसण्या ॥ ५.१ ।।
( उषासक दशा अ० १ )
स० श्रावक में. प० १५ प्रकार रा. के० कर्मादान ( कर्म श्रावारा स्थान ) व्यापार जाणना. किन्तु न० नहीं आदरखा तं ते कहै छे. इ० श्रभि कर्म वन कर्म साडी ( शकटादि वाहन ) कर्म भा० भाड़ी ( भाड़ो उपजावन वालो) कर्म. फोडी कर्म दन्त वाणिज्य. रस बाणिज्य केश वाणिज्य विष वाणिज्य ल० लाज्ञा लाह श्रादि) वाणिज्य यत्र पीलन कर्म क्ल्लिंण (बैल आदि का अङ्ग विशेष छेदन) कर्म दावाग्नि ( बन में खेत आदिकों में अभि लगाना कर्म स० तालाव घ्यादिके रे पाणी से शोषण आदि कर्म श्र० वैश्या आदि में पोषण। श्रादिक व्यापार कर्म.