________________ ( 12 ) रामस्यासीन्महात्मनः" सीता महात्मा राम के लिए प्राणों से भी अधिक प्रिय थी।) नैष भारो मम यह मेरे लिए बोझल (भारी) नहीं। तथा—किं दूरं व्यवसायिनाम्-व्यवसाइयों (उद्योगी पुरुषों) के लिये दूर क्या कुछ है / पुनः 'नूतन एष पुरुषावतारो यस्य भगवान् भृगुनन्दनोऽपि न वीरः'-यह कोई नया ही पुरुष का अवतार है जिसके लिए भगवान् परशुराम भी वीर नहीं हैं / इन सब उदाहरणों में यद्यपि हिन्दी में 'के लिये' का प्रयोग किया गया है, फिर भी 'तादर्थ्य' (एक वस्तु दूसरी वस्तु के लिये हैं) सम्बन्ध के न होने से संस्कृत में हिन्दी के लिये' के स्थान में चतुर्थी का प्रयोग नहीं हो सकता। _ 'से' के स्थान में परचमी का प्रयोग तब तक नहीं कर सकते, जब तक 'अपादान' (पृथक् करण) का भाव न हो / उदाहरणार्थ-मैं तुझे कितने समय से हूँढ़ रहा हूँ। 'कां वेलां त्वामन्वेषयामि / ' यहाँ वेला अवधि नहीं है, अन्वेषण-क्रिया से व्याप्त काल है, अतः अत्यन्त संयोग में द्वितीया हुई है। मुनियों के वस्त्र वृक्षों की शाखाओं से लटक रहे हैं / 'वृक्षशाखास्ववलम्बन्ते यतीनां वासांसि / ' यहाँ स्पष्ट ही वृक्ष-शाखा अपादान कारक नहीं, किन्तु वस्त्रों का अवलम्बन क्रिया द्वारा आधार होने से अधिकरण कारक ही है / अतः सप्तमी ही उचित है / मुझसे रामायण की कथा को समझो (जैसे) मैं (इसे) कहता हूँ 'निबोध मे कथयतः कथां रामायणीम् / ' यहाँ भी नियमपूर्वक अध्ययन के न होने से, पाख्याता (कहने वाला) अपादान नहीं है, इसलिये पञ्चमी का प्रयोग नहीं किया गया / इसी प्रकार 'इदानीमहमागन्तुकानां श्रुत्वा पुरुषविशेषकौतूहलेनागतोऽस्मीमामुज्जयिनीम्' (चारुदत्त अङ्क 2) में 'आगन्तुकानाम्' में षष्ठी हुई 'राजा देवत्वमापन्नो भरतस्य यथाश्रुतम्' (रा.)। और 'इति शुश्रुम धीराणाम्' (यजुः) में भी। कभी 2 चाहे 'अपादान' का भाव स्पष्ट भी क्यों न हो, फिर भी हम उसकी उपेक्षा कर दूसरे कारक (कर्ता, कर्म,) को कल्पना करते हैं / जैसे-स प्राणान् मुमोच (उसने प्राण छोड़ दिये)-'त प्राणाः मुमुचुः' (उसको प्राणों ने छोड़ दिया) या 'स प्राणममुचे' (वह प्राणों से छोड़ा गया)। यहाँ भाव स्पष्ट है कि पुरुष का प्राणों से वियोग है / संयोग और वियोग उभयनिष्ठ होते हैं। यह विवक्षाधीन है कि किस एक को ध्रुव (अवधिभूत माना जाय)। यदि प्राणों को ध्र व (अवधिभूत) मानें तो