________________ प्रहरहर्नयमानो गामश्वं पुरुषं पशुम् / वैवस्वतो न तृप्यति सुराया इव दुर्मदी // ( महाभाष्य ) ! अमृतस्येव नातृप्यन् प्रेक्षमाणा जनार्दनम् ( उद्योगपर्व 64 / 51 // ) / 'नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः / ' अपां हि तृप्ताय न वारिधारा स्वादुः सुगन्धिः स्वदते तुषारा (नैषध 3 / 63) षष्ठी का ही व्यवहार प्रायिक है। इसमें 'पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन'--यह सूर ज्ञापक है / सुहितार्थ (-तृप्तार्थक ) सुबन्त के साथ षष्ठ्यन्त का समास नहीं होता ऐसा कहा है। सुरा, अमृत, काष्ठ, अप् ( जल ) आदि के करण-तृतीयान्त होते हुए शेषिकी षष्ठी का कोई अवकाश ही नहीं था तो निषेध व्यर्थ था। इससे ज्ञापित होता है कि सत्रकार को यहाँ षष्ठी इष्ट है। ऐसा ही 'पूर्ण' शब्द के प्रयोग में देखा जाता है-'प्रोदनस्य पूर्णाश्छात्रा विकुर्वते, ( काशिका ) / दासी घटमपां पूर्ण पर्यस्येत् प्रतवत्पदा ( मनु० 111183 / / ) 'नवं शरावं सलिलस्य पूर्णम्' (अर्थशास्त्र ) ( ) / 'तस्येयं पृथ्वी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात् ( तै० उ० 2 / / ) अपामञ्जली पूरयित्वा (आश्वलायन गृह्य 1 / 20 / / ) / स्निग्धद्रवपेशलानामन्नविशेषाणां भिक्षाभाजनं परिपूर्ण कृत्वा' ( तन्त्राख्यायिका, मित्रसम्प्राप्ति कथा 1) / प्र+ह ( मारना या चोट लगाना ) के 'कर्म' को कर्म नहीं समझा जाता, इसके विपरीत इसे अधिकरण माना जाता है। जैसे-'ऋषिप्रभावान्मयि नान्तकोऽपि प्रभुः प्रहर्तुं किमुतान्यहिंस्राः' ( रघुवंश ) - ऋषियों की देवी शक्ति के कारण यमराज भी मुझ पर प्रहार नहीं कर सकता, अन्य हिंसक पशुओं का तो कहना ही क्या / 'पार्तत्राणाय वः शस्त्रं न प्रहर्तुमनागसि' ( शाकुन्तलनाटकम् )=तुम्हारा हथियार पीड़ितों की रक्षा के लिए है न, कि निरपराधियों के मारने के लिये। परन्तु ऐसे सर्वदा नहीं होता। जब कभी किसी अंग विशेष जिसे चोट पहुंचाई जाय-का उल्लेख हो, तब वह व्यक्ति जिसका वह अंग हो 'कर्म' समझा जाता है मोर अंग अधिकरण / जैसे-- उसने मेरी छाती पर डंडे से प्रहार किया-स मां लगुडेन वक्षसि प्राहरत् / जब प्र+ह का प्रयोग फेंकने अर्थ में होता है, तब जिस पर शस्त्र फेंका जाता है, उसमें चतुर्थी आती है। जैसे-'इन्द्रो वृत्राय वज्र प्राहरत्' (=प्राहिणोत् ) / __हिन्दी में हम 'गृणों में अपने समान कन्या से तू विवाह कर' ऐसा कहते