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अष्टाविंशतितमं पर्व श्यामागीरनभिव्यक्तरोमराजीस्तनूदरीः । परिधान कृतालोलपल्लवव्यक्तसंवृतीः ॥३८॥ चमरीबालकाविद्ध कबरीबन्धबन्धुराः । फलिनी कलसंधमालारचितकण्ठिकाः ॥३९॥ कस्तूरिकामृगाध्यासवासिताः सुरभीम॒दः । संचिन्वतीर्वनाभोगे प्रसाधनजिवृक्षया ॥४०॥ पुलिन्दकन्यकाः सैन्यसमालोकनविस्मिताः। अव्याजसुन्दराकारा दूरादालोकयत् प्रभुः ॥४१॥ चमरीवालकान् केचित् केचित् कस्तूरिकाण्डकान् । प्रभोरुपायनीकृत्य ददृशुम्लेंच्छराजकाः ॥४२॥ तत्रान्तपालदुर्गाणां सहस्राणि सहस्रशः । लब्धचक्रधरादेशः सेनानी: समशिथ्रियत् ॥४३॥ अपूर्वरत्नसंदर्भः कुप्यसारधनैरपि । अन्तपालाः प्रभोराज्ञां सप्रणामैरमानयन् ॥४४॥ ततो विदूरमुल्लङ्ध्य सोऽध्वानं सह सेनया। गङ्गाद्वारमनुप्रापत् स्वमिवालध्यमर्णवम् ॥४५॥ बहिः समुद्रमुद्रिक्तं द्वेप्यं निम्नोपगं' जलम् । समुद्रस्येव १०निष्यन्दमब्धेराराद् व्यलोकयत् ॥४६॥ वर्षारम्भो युगारम्भे योऽभूत् कालानुभावत:११ । ततः प्रभृति संवृद्धं जल द्वीपान्तमावृणोत् ॥४७॥ अलङध्यत्वान् १२महीयस्त्वाद हीपपर्यन्तवेष्टनात् । द्वैष्यमम्बु १3समुद्रिक्तमगादुपसमुद्रताम् ॥४८॥
पश्यन्नुपसमुद्रं तं गत्वा स्थलपथेन १४सः । गङ्गोपनवेद्यन्तर्भागे१५ सैन्यं न्याविशत् ॥४९॥ शरीरपर अभी रोमराजी प्रकट नहीं हुई है, उदर भी जिनका कृश है, वस्त्रके समान धारण किये हुए चंचल पत्तोंसे जिनके शरीरका संवरण प्रकट हो रहा है, चमरी गायके बालोसे बंध हुए केशपाशोंसे जो बहुत ही सुन्दर जान पड़ती हैं, गुंजाफलोंसे बनी हुई मालाओंको जिन्होंने अपना कण्ठहार बनाया है, कस्तूरी मृगके बैठनेसे सुगन्धित हुई मिट्टीको आभूषण बनानेकी इच्छासे जो वनके किसी एक प्रदेश में इकट्ठी कर रही हैं, जिनका आकार वास्तवमें सुन्दर है और जो सेनाके देखनेसे विस्मित हो रही हैं ऐसी भीलोंकी कन्याओंको भरतने दूरसे ही देखा था ।।३८-४१।। कितने ही म्लेच्छ राजाओंने चमरो गायके बाल और कितने ही ने कस्तूरीमृगकी नाभि भेंट कर भरतके दर्शन किये थे ॥४२॥ वहाँपर सेनापतिने चक्रवर्तीकी आज्ञा प्राप्त कर अन्तपालोंके लाखों किले अपने वश किये । ॥४३॥ अन्तपालोंने अपूर्व-अपूर्व रत्नोंके समूह तथा सोना चाँदी आदि उत्तम धन भेंट कर भरतेश्वरको प्रणाम किया तथा उसकी आज्ञा स्वीकार की ॥४४॥ तदनन्तर सेनाके साथ-साथ बहत कुछ दर मार्गको व्यतीत कर वे गंगाद्वारको प्राप्त हुए और उसके बाद ही अपने समान अलंघनीय समुद्रको प्राप्त हुए ॥४५।। उन्होंने समुद्रके समीप ही; समुद्रसे बाहर उछल-उछलकर गहरे स्थानमें इकट्ठे हुए द्वीपसम्बन्धी उस जलको देखा जो कि समुद्रके निप्यन्दके समान मालूम होता था अथवा समुद्रके जलके समान ही निश्चल-स्थायी था अर्थात उपसमद्रको देखा. समद्रका जो जल उछल-उछलकर समुद्रके समीप ही द्वीपके किसी गहरे स्थाममें इकट्ठा होता जाता है वही उपसमुद्र कहलाता है । उपसमुद्र द्वीपके भीतर होता है इसलिए उसका जल द्वैप्य कहलाता है। उपसमुद्रका जल ऐसा जान पड़ता था मानो समुद्रका स्वेद ही इकट्ठा हो गया हो ।।१६।। कर्मभूमिरूप युगके प्रारम्भमें जो वर्षा हुई थी तबसे लेकर कालके प्रभावसे बढ़ता हुआ वही जल द्वीपके अन्त भाग तक पहुँच गया था ॥४७।। जो जल समुद्रसे उछल-उछलकर द्वीपमें आया था वह अलंघनीय था, बहुत गहरा था और उसने द्वीपके सब समीपवर्ती भागको घेर लिया था इसलिए वही उपसमुद्र कहलाने लगा था ॥४८॥ उस उपसमुद्र को देखते हुए भरतने सुखकर मार्गसे जाकर १ अभ्यन्तरप्रदेशाः । २ गजारचित । ३ अनपाधि । ४ व्याध । ५ कासश्रीखण्डादि । ६ अपूजयन् । ७ समुद्रस्य बहिः । ८ द्वीपसंबन्धि । ९ अगाधभावप्राप्तम् । १० प्रस्रवणम् । ११ सामथ्यतः । १२ अत्यन्तमहत्त्वात् । १३ उत्कटम् । १४ सूखपथेन ल०, सुलपथेन इ०, ल० । 'सुखेन लायते गृह्यते इति सुल:', इति 'इ' टिप्पण्याम् । १५ वेद्यन्तभागे ल० ।