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अष्टाविंशतितमं पर्व अनुगङ्गातटं यान्ती ध्वजिनी सा ध्वजांशुकैः । वररेणुभिराकीर्णं संममार्जेब खाङ्गणम् ॥२०॥ दुर्विगाहा महाग्राहाः सैन्यान्युत्तरुरन्तरे । गङ्गानुगा धुनीब्रह्वीबहुराजकुलस्थितीः ॥२१॥ मार्गे बहुविधान देशान् सरितः पर्वतानपि । वनधीन वनदुर्गाणि खनीरप्यत्यगात् प्रभुः ॥२२॥ अगोष्पदेष्वरण्येषु दृशं व्यापारयन् विभुः। भूमिच्छिन्द्रपिधानाय क्षणं यत्नमिवातनोत् ॥२३॥ पथि प्रणेमुरागस्य संभ्रान्ता मण्डलाधिपाः । दण्डोपनतवृत्तस्य विषयोऽयमिति प्रभुम् ॥२४॥ स चक्र धेहि राजेन्द्र सधुरं प्राज सारथे । संजल्प इति नास्यासीदयत्नावनतद्विषः ॥२५॥ प्रतियोद्धमशक्तास्तं प्रथनेषु जिगीषवः । तत्पदं प्रणतिव्याजात् समौलिभिरताडयन् ॥२६॥ "विभुत्वमरिचक्रेषु भूपरागानुरम्जनम् । स्वचक्र इव सोऽधत्त महतां चित्रीहितम् ॥२७॥
सेना अनेक मार्गोसे गमन करनेवाली थी ॥१९॥ गंगानदीके किनारे-किनारे जाती हुई बहे सेना अपनी फहराती हुई ध्वजाओंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो वनकी धूलिसे भरे हुए आकाशरूपी
वजाओंके वस्त्रोंसे साफ ही कर रही हो ॥२०॥ महाराज भरतकी सेनाओंने गंगाकी ओर आनेवाली उन अनेक नदियोंको पार किया था जो राजकलकी स्थितिके समान जान पडती थीं क्योंकि जिस प्रकार राजकुलकी स्थिति दुर्विगाह अर्थात् दुःखसे जाननेके योग्य होती है उसी प्रकार वे नदियाँ भी दुर्विगाह अर्थात् दुःखसे प्रवेश करने योग्य थीं और राजकुलकी स्थिति जिस प्रकार महाग्राह अर्थात् महास्वीकृतिसे सहित होती है उसी प्रकार वे नदियाँ भी महाग्राह अर्थात् बड़े-बड़े मगर-मच्छोंसे सहित थीं ॥२१॥ धनवान् महाराज भरत मार्गमें पड़ते हुए अनेक देश, नदियाँ, पर्वत, वन, किले और खान आदि सबको उल्लंघन करते हुए आगे चले जा रहे थे ।।२२।। गाय आदि जानवरोंके संचारसे रहित अर्थात् अगम्य वनों में दृष्टि डालते हुए भरतेश्वर ऐसे जान पड़ते थे मानो पृथिवीके छिद्रोंको टाँकनेके लिए क्षण-भरके लिए न यत्न ही कर रहे हों ॥२३॥ मार्गमें घबड़ाये हुए अनेक मण्डलेश्वर राजा भरतको यह सोचकर प्रणाम कर रहे थे कि यह देश दण्डरत्नके धारकका है ।।२४॥ मार्गमें महाराज भरतेश्वरके समस्त शत्रु बिना प्रयत्नके हो नम्रीभूत होते जाते थे इसलिए उन्हें कभी यह शब्द नहीं कहने पड़ते थे कि हे राजेन्द्र, आप चक्ररत्न धारण कीजिए और हे सारथे, तुम रथ चलाओ ॥२५।। जीतनेकी इच्छा करनेवाले अन्य कितने ही राजा लोग युद्ध में भरतेश्वरसे लड़नेके लिए समर्थ नहीं हो सके थे इसलिए नमस्कारके बहाने अपने मुकुटोंसे ही उनके पैरोंकी ताड़ना कर रहे थे ॥२६॥ महाराज भरत जिस प्रकार अपने राज्यमें विभुत्व अर्थात् ऐश्वर्य धारण करते थे उसी प्रकार शत्रुओंके राज्यों में भी विभुत्व अर्थात् पृथिवीका अभाव धारण करते थे-उनकी भूमि छीन लेते थे, (विगत भूर्येषां तेषां भावः विभुत्वम् ) और जिस प्रकार अपने राज्यमें भूप-रागानुरंजन अर्थात्
१ महानक्राः, पक्षे महास्वीकाराः । २ नदीः । ३ राजकुलस्थितेः समाः [प्रकारार्थे बहुच् ] । ४ बहुसंख्यान् । बहुस्थितान् ल०, इ० । बहुतिथान् ट०। ५ सरोवरान् । धनवान् ल०, ५०, इ० । बलवान् अ०, स० । ६ अगम्येषु । ७ भूगर्ताच्छादनाय । ८ दण्डेन, प्राप्तं वृत्तं यस्य स तस्य । ९ प्रणामः । १० प्रसिद्धस्त्वम् । ११ धारय । १२ यानमुखम् । 'धू: स्त्री क्लीबे यानमुखम्' इत्यभिधानात् । १३ प्रेरय, 'अज प्रेरणे च' । १४ युद्धेषु । प्रधनेषु ल०, द०, इ०, प०, स०, अ० । १५ प्रभुत्वम्, व्यापित्वं च । १६ स्वराष्ट्रपक्षे भूपानामनुरागरञ्जनम् । अरिराष्ट्रपक्षे भुवः परागरञ्जनम् ।