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जीवरूपी पशुओं के गले में पुत्र-स्त्री आदि का स्नेहरूपी पाश (फंदा) डालकर उन्हें सतत् पीड़ित कर रहे हैं। और इस कारण अत्यन्त दुःख से पीड़ित जीव-रूपी पशु चिल्ला रहे हैं ॥४॥ अविद्यायां रात्रौ चरति वहते मूर्ध्नि विषमं । कषायव्यालौघं क्षिपति विषयास्थीनि च गले ॥ महादोषान दन्तान प्रकटयति वक्रस्मरमखो। न विश्वासार्होऽयं भवति भवनक्तंचर इति ॥५॥
भावार्थ : यह संसार राक्षसरूप है, जो अविद्यारूपी रात्रि में चलता है, मस्तक पर भयंकर कषायरूपी सो को धारण करता है, उसके गले में विषयरूपी हड्डियों का ढेर लटक रहा है और फिर वह संसाररूपी राक्षस कामरूपी कुटिल मुख वाला होकर अपने महादोषरूपी दाँत दिखाता है । अतः ऐसे संसाररूपी राक्षस पर विश्वास नहीं करना चाहिए ॥५॥ जना लब्ध्वा धर्मद्रविणलवभिक्षां कथमपि । प्रयान्तो वामाक्षीस्तनविषमदुर्गस्थितिकृता ॥ विलुट्यन्ते यस्यां कुसुमशरभिल्लेन बलिना । भवाटव्यां नास्यामुचितमसहायस्य गमनम् ॥६॥
भावार्थ : बड़ी मुश्किल से उपार्जित धर्मरूपी धन की जरा-सी भिक्षा प्राप्त करके संसाररूपी अटवी में विचरण करने वाले भव्यजीवों को स्त्रियों के स्तनरूपी विषमदुर्ग में स्थित अधिकार चौथा
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