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भावार्थ : इस जगत् में निश्चयार्थ को कोई भी साक्षात् कहने में समर्थ नहीं है । परन्तु व्यवहारनय उस निश्चय के गुण द्वारा उस (निश्चय) के अर्थ का बोध कराने में समर्थ है ॥७॥ प्राधान्यं व्यवहारे चेत्तत्तेषां निश्चये कथम् ? परार्थस्वार्थते तुल्ये शब्दज्ञानात्मनोर्द्वयोः ॥८ ॥
भावार्थ : यदि कोई व्यवहार की प्रधानता बतलाते हैं, तो उन्हें निश्चयनय में प्रधानता कैसे होगी? क्योंकि शब्दात्मक और ज्ञानात्मक इन दोनों का परार्थत्व और स्वार्थत्व तुल्य है ॥८॥ प्राधान्याद् व्यवहारस्य तत्तच्छेदकारिणाम् । मिथ्यात्वरूपतैतेषां पदानां परिकीर्तिता ॥९॥
भावार्थ : इसलिए व्यवहार की प्रधानता के कारण व्यवहार का ही उच्छेद करने वाले उन पूर्वोक्त ६ पदों की मिथ्यात्वरूपता कही है ॥९॥
नास्त्यात्मेति चार्वाकः प्रत्यक्षानुपलम्भतः । अहंताव्यपदेशस्य शरीरेणोपपत्तितः ॥१०॥
भावार्थ : 'प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं होता ( दिखाई नहीं देता), इसलिए आत्मा है ही नहीं ।' और अहंता ('मैं हूँ' इस प्रकार के अहंत्व) का व्यपदेश (कथन) तो शरीर से हो सकता है, इस प्रकार चार्वाक कहता है 112011
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अध्यात्मसार