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भावार्थ : निश्चयदृष्टि से तो कोई किसी दूसरे को नहीं मारता, और न रक्षा ही करता है, परन्तु उसके आयुष्यकर्म का नाश होने पर मृत्यु होती है, अन्यथा वह जीवित रहता है ॥१०२॥ हिंसादयाविकल्पाभ्यां स्वगताभ्यां तु केवलम् । फलं विचित्रमाप्नोति परापेक्षां विना पुमान् ॥१०३॥
भावार्थ : केवल अपने में स्थित हिंसा और दया के परिणाम से पुरुष (व्यक्ति) अन्य की अपेक्षा के बिना ही विचित्र फल प्राप्त कर लेता है ॥१०॥ शरीरी म्रियतां मा वा ध्रुवं हिंसा प्रमादिनः । दयैव यतमानस्य वधेऽपि प्राणिनां क्वचित् ॥१०४॥
भावार्थ : जीव मरे या न मरे, फिर भी प्रमादी जीव को हिंसा अवश्य लगती है । किन्तु यतनापूर्वक प्रवृत्ति करने वाले को कदाचित् प्राणियों का वध होने पर भी वह दया ही होती है ॥१०४॥ परस्य युज्यते दानं हरणं वा न कस्यचित् । न धर्मसुखयोर्यत्ते कृतनाशादिदोषतः ॥१०५॥
भावार्थ : किसी को किसी दूसरे का दान अथवा हरण (ग्रहण) करना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि वह दान या हरण (आदान) कृतनाश वगैरह दोष के कारण धर्म और सुख के लिए नहीं होता ॥१०५॥ २५२
अध्यात्मसार