Book Title: Adhyatma Sara
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 308
________________ नव्योऽस्माकं प्रबन्धोऽष्यनणुगुणभृतां सज्जनानां प्रभावात् । विख्यातः स्यादितीमे हितकरणाविधौ प्रार्थनीया न किं नः । निष्णाता वा स्वतस्ते रविरूचय इवाम्भोरुहाणं गुणानामुल्लासेऽपेक्षणीयो न खलु पररुचेः क्वापि तेषां स्वभावः ॥१४॥ भावार्थ : 'हमारी यह रचना नई होती हुई भी बड़े-बड़े गुणधारी सज्जनों के प्रभाव से प्रसिद्ध हो' क्या वे सज्जन हित करने की विधि में हमारे द्वारा प्रार्थनीय नहीं हैं ? अथवा कमलों को विकसित करने में सूर्यकिरणों की तरह गुणों का उल्लास (विकास) करने में वे सज्जन स्वयमेव विलक्षण हैं, क्योंकि उनका स्वभाव कदापि दूसरे की रुचि इच्छा की अपेक्षा नहीं रखता ॥१४॥ यत्कीर्तिस्फूर्तिगानावहितसुरवधूवृन्दकोलाहलेन, प्रक्षुब्धस्वर्गसिन्धोः पतितजलभरैः क्षालितः शैत्यमेति । अश्रान्तभ्रान्तकान्तग्रहगणकिरणौस्तापवान् स्वर्णशैलो भ्राजन्ते ते मुनीन्द्रा नयविजयबुधाः सज्जनवात-धुर्याः ॥१५॥ भावार्थ : अविश्रान्त भ्रमण करते हुए मनोहर ग्रहगणों की किरणों से तपा हुआ सुमेरुपर्वत उन गुरुदेव की कीर्ति का स्फूर्तिपूर्वक गान करने में दत्तचित्त देवांगनाओं के झुण्ड के कोलाहल से प्रक्षुब्ध स्वगंगा से गिरते हुए जलप्रवाहों से धुलकर शीतलता को प्राप्त करता है, उन सज्जनों के समूह में अग्रगण्य नयविजय नामक पण्डित मुनिवर्य विराजमान हैं ॥१५॥ ३०८ अध्यात्मसार

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