Book Title: Adhyatma Sara
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 306
________________ एतडिंडीरपिंडीभवति विधुरुचेर्मंडलं विप्रुषस्तास् । ताराकेलासशैलादय इह दधते वीचिविक्षोभलीलां ॥१०॥ भावार्थ : सत्कवियों के प्रौढ़ग्रन्थ के भावों को विस्तृत करने से उत्पन्न हुए यश के संचयरूप क्षीरसागर का विवेकी सहृदय पण्डितरूपी देवों द्वारा वर्णनरूप मेरु से मंथन किया जाता है, तब उसमें से पैदा हुआ फेन का पुंज चन्द्रमा की कान्ति के मंडल के समान है तथा अत्यन्त उछलती हुई उच्चारणध्वनिरूप बूँदें तारे बन गए, और कैलाशपर्वत आदि इस क्षीरसागर में उठती हुई तरंगों की लीला को धारण करते हैं ॥१०॥ काव्यं दृष्टवा कवीनां हृतममृतमिति स्वःसदां पानशंकी । खेदं धत्ते तु मूर्ध्ना मृदुतरहृदयः सज्जनो व्याधुतेन । ज्ञात्वा सर्वापभोग्यं प्रसृमरमथ तत्कीर्त्तिपीयूषपूरं, नित्यं रक्षापिधानानियतमतितरां मोदते च स्मितेन ॥११॥ भावार्थ : अतिकोमल हृदय वाले सज्जन पुरुष कवियों के काव्य देखकर 'इसने देवों के अमृत का हरण कर लिया' यह सोचकर पान से अशंकित होकर सिर धुन - धुनकर पछताता T है । और उस काव्य के यशरूपी अमृत के संचय को सबके लिए उपभोग्य तथा प्रसरणशील जानकर सदा रक्षा और आच्छादन की अनियतता जानकर मुस्कराकर अत्यन्त हर्षित होता है ॥११॥ ३०६ अध्यात्मसार

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