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भावार्थ : सिद्धान्तरूपी कुण्ड में चन्द्रकिरणों की तरह निर्मल अध्यात्मजल के पूर से स्नान करके सन्ताप का, संसार के दुःख का, क्लेश और पापमल का एवं लोभरूपी तृषा का त्याग करके जो शुद्धरूप हो गए हैं, शम, दम और पवित्रतारूपी चन्दन से जिन्होंने अपने शरीर पर लेपन कर लिया है तथा शीलरूपी आभूषण से जो सारभूत हो गए हैं, वैसे समग्र गुणों की निधि के समान सज्जनों को हम नमस्कार करते हैं ॥८॥
पाथोदः पद्यबन्धैर्विपुलरसभरं वर्षति ग्रन्थकर्त्ता प्रेम्णां पूरैस्तु चेतःसर इह सुहृदां प्लाव्यते वेगवद्भिः । त्रुट्यन्ति स्वान्तबन्धाः पुनरसमगुणद्वेषिणां दुर्जनानां, चित्रं भावज्ञनेत्रात् प्रणयरसवशान् निःसरत्यश्रुनीरम् ॥९॥
भावार्थ : ग्रन्थकर्त्तारूपी मेद्य पद्यबन्धों से विपुल रससमूह को बरसाते हैं, और सत्परिणति वाले हृदयसरोवर को इस मेघवृष्टि द्वारा अत्यन्त तेजी से बहते हुए प्रेम के प्रवाहों से भर देते हैं । किन्तु गुणों के प्रति अत्यन्त द्वेष रखने वाले दुर्जनों के हृदयबन्ध टूट जाते हैं और तत्त्वज्ञ के नेत्र से प्रेमरस के वश अश्रुजल निकलता है, यही आश्चर्य है ॥९॥
उद्दामग्रन्थभावप्रथनभवयशः संचयः सत्कवीनां, क्षीराब्धिर्मथ्यते यः सुहृदयविबुधैर्मेरुणा वर्णनेन ।
अधिकार इक्कीसवाँ
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