Book Title: Adhyatma Sara
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

Previous | Next

Page 307
________________ निष्पाद्य श्लोककुम्भं निपुणनयमृदा कुम्भकाराः कवीन्द्राः, दाढ्यं चारोप्य तस्मिन् किमपि परिचयात् सत्परीक्षार्कभासाम्। पक्वं कुर्वन्ति बाढं गुणहरणमतिप्रज्वलद्दोषदृष्टिज्वालामालाकराले खलजनवचनाज्वालाजिह्वा निवेश्य ॥१२॥ भावार्थ : कुम्भकाररूपी कवीन्द्र निपुणनयरूपी मिट्टी से श्लोकरूपी घड़े बनाकर उसे सत्परीक्षणरूपी सूर्यकिरणों का सम्पर्क कराकर उनमें कुछ मजबूती लाकर गुणों को हरण करने वाली बुद्धि से दोषदृष्टिरूपी जाज्वल्यमान ज्वाला की मालाओं से विकराल दुर्जनपुरुष की जिह्वारूपी अग्नि-ज्वाला में डालकर उन्हें पक्के बनाते हैं ॥१२॥ इक्षुद्राक्षारसौघः कविजनवचनं दुर्जनास्याग्नियंत्रान् । नानार्थद्रव्ययोगात् समुपचितगुणे मद्यतां याति सद्यः । सन्तः पीत्वा यदुच्चैर्दधति हृदि मुदं घूर्णयन्त्यक्षियुग्मं, । स्वैरं हर्षप्रकर्षादपि च विदधते नृत्यगानप्रबन्धम् ॥१३॥ भावार्थ : कविजनों के वचनरूपी ईक्षु और अंगूर के रस का पुंज दुर्जन पुरुष के मुखरूपी अग्नियंत्र से विविध प्रकार के अर्थरूपी द्रव्यों के संयोग से गुणवृद्धि पाकर तत्काल मद्यरूप बन जाता है। उस मद्य का पान करके सत्पुरुष हृदय में अत्यन्त हर्षित होते हैं। वे दोनों आँखों को चपलतापूर्वक घुमाते हैं, और स्वच्छन्दतापूर्वक हर्षावेश में आकर नृत्य और गीत का प्रबन्ध भी करते हैं ॥१३॥ अधिकार इक्कीसवाँ ३०७

Loading...

Page Navigation
1 ... 305 306 307 308 309 310 311 312