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भावार्थ : जो लोग कुछ सदृशता देखकर कांच और इन्द्रनीलमणि में अभेद (अभिन्नता) प्रगट करते हैं, उन अल्पबुद्धि वालों को कवियों की गूढ कृति हर्ष प्रदान करने वाली नहीं होती । परन्तु जो विषमतारहित वस्तु में भी रेखा और उपरेखा के अंश से भी विशेषरूप से जानते हैं; उन कुशलबुद्धि वाले सत्पुरुषों को यह कृति महान् उत्सवरूप है ॥६॥ पूर्णाध्यात्मपदार्थसार्थघटना चेतश्चमत्कारिणी, मोहाच्छन्नदृशां भवेत्तनुधियां, नो पंडितानामिव । काकुव्याकुलकामगर्वगहनप्रोद्दामवाक्चातुरी । कामिन्याः प्रसभं प्रमोदयति न ग्राम्यान् विदग्धानिव ॥७॥
भावार्थ : जिनकी आँखें मोह से ढकी हुई हैं, उन अल्पबुद्धि वालों के चित्त को सम्पूर्ण अध्यात्मपदार्थ-समूह की रचना पण्डितों की तरह चमत्कृत (चकाचौंध) करने वाली नहीं होतीं । कामिनी की काकुउक्ति (वक्रोक्ति) से व्याकुल, काम के गर्व से गहन, और अतिप्रबल वाणी की चातुरी चतुर (विद्वान) पुरुषों की तरह ग्राम्यजनों को प्रमुदित नहीं करती ॥७॥ स्नात्वा सिद्धान्तकुण्डे विधुकरविशदाध्यात्मपानीयपूरैः, तापं संसारदुःखं कलिकलुषमलं लोभतृष्णां च हित्वा । जाता ये शुद्धरूपाः शमदमशुचिताचन्दनालिप्तगात्राः । शीलालंकारसाराः सकलगुणनिधीन् सज्जनांस्तान्नमामः ॥८॥ ३०४
अध्यात्मसार