Book Title: Adhyatma Sara
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 302
________________ बढ़ाते हैं (फैलाते हैं)। जैसे मनोहर विचित्र वसन्तश्री आम्रवृक्ष की मंजरी को फैलाती है, किन्तु उसके सौभाग्य को तो श्रेष्ठ कोयलें अपने पंचमस्वर के चमत्कार से सर्वत्र प्रसिद्ध करती हैं ॥२॥ दोषोल्लेखविषः खलाननबिलादुत्थाय कोपाज्ज्वलन्, जिह्वाहिर्ननु कं गुणं न गुणिनां बालं क्षयं प्रापयेत् । न स्याच्चेत्प्रबलप्रभावभवनं, दिव्यौषधी सन्निधौ, शास्त्रार्थोपनिषद्विदां शुभहृदां कारुण्यपुण्यप्रथा ॥३॥ भावार्थ : अगर शास्त्र के उपनिषद् (रहस्य) के जानकार और शुभ हृदय वाले पुरुषों की करुणा (कृपा) रूपी पुण्य की प्रसिद्धिरूप और प्रबल प्रभाव के स्थान वाली दिव्य औषधि पास में न हो तो दोष के उल्लेख (उच्चारण) रूपी विष वाला और कोप से जाज्वल्यमान जिह्वारूपी सर्प दुर्जन पुरुष के मुखरूपी बिल से निकलकर गुणीजनों के किस बढ़ते हुए गुण का क्षय (नाश) नहीं कर देता? सभी गुणों को क्षय कर डालता ॥३॥ उत्तानार्थगिरां स्वतोऽप्यवगमात् निःसारतां मेनिरे । गम्भीरार्थसमर्थने बत खलाः काठिन्यदोषं ददुः । तत्को नाम गुणोऽस्तु, कश्च सुकविः किं काव्यमित्यादिकां । स्थित्युच्छेदमतिं हरन्ति नियता दृष्टा व्यवस्थाः सताम् ॥४॥ भावार्थ : दुर्जनपुरुष सुगम अर्थ वाली वाणी को स्वतः समझ सकते हैं। लेकिन फिर भी उसे निःसार मानते हैं और ३०२ अध्यात्मसार

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