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भक्तिर्भगवति धार्या, सेव्यो देशः सदा विविक्तश्च । स्थातव्यं सम्यक्त्वे, विश्वस्यो न प्रमादरिपुः ॥४२॥
भावार्थ : भगवान् जिनेश्वर के प्रति भक्ति रखना, सदा एकान्तप्रदेश (स्थान) का सेवन करना, अपने सम्यक्त्व पर दृढ़ रहना और प्रमादरूपी शत्रु का विश्वास न करना चाहिए ॥४२॥ ध्येयाऽऽत्मबोधनिष्ठा, सर्वत्रैवागमः पुरस्कार्यः । त्यक्तव्याः कुविकल्पाः स्थेयं वृद्धानुवृत्या च ॥४३॥
भावार्थ : आत्मज्ञान की निष्ठा का ध्यान करना चाहिए, सर्वत्र आगम को आगे रखना चाहिए, कुविकल्पों का त्यागकर देना चाहिए और वृद्धजनों की अनुवृत्ति से रहना चाहिए ॥४३॥ साक्षात्कार्यं तत्त्वं चिद्रूपानन्दमेदुरैर्भाव्यम् । हितकारी ज्ञानवतामनुभववेद्यः प्रकारोऽयम् ॥४४॥
भावार्थ : तत्त्व का साक्षात्कार करना चाहिए । चिदानन्द से परिपूर्ण होना चाहिए, यह अनुभव से जानने योग्य प्रकार ज्ञानियों के लिए हितकारी है ॥४४॥
॥ इत्यनुभवस्वरूपाधिकारः ॥
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अध्यात्मसार