Book Title: Adhyatma Sara
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 299
________________ चिन्तन करना चाहिए, गुणों की गरिमा से पूर्ण पुरुषों की पूजा (सत्कार) करनी चाहिए, और जिसमें थोड़ा-सा भी गुण हो, उसके प्रति भी प्रेमभाव रखना चाहिए ॥३८॥ ग्राह्यं हितमपि बालादालापैर्दुर्जनस्य न द्वेष्यम् । व्यक्तव्या च पराशा पाशा इव संगमा ज्ञेयाः ॥३९॥ भावार्थ : बालक से भी हितकर बात को ग्रहण करना चाहिए, दुर्जन के प्रलापों पर द्वेषभाव नहीं करना चाहिए, पराई आशा का त्याग कर देना चाहिए और संगम–संयोग बन्धन (पाश) की तरह समझना चाहिए ॥३९॥ स्तुत्या स्मयो न कार्यः, कोपोऽपि च निन्दया जनैः कृतया । सेव्या धर्माचार्यास्तत्त्वं जिज्ञासानीयं च ॥४०॥ भावार्थ : दूसरे लोगों द्वारा की हुई अपनी स्तुति (प्रशंसा) सुनकर गर्व नहीं करना चाहिए, उनके द्वारा की गई निन्दा सुन कर क्रोध नहीं करना चाहिए धर्माचार्य की सेवा करनी चाहिए और तत्त्व को जानने की इच्छा रखनी चाहिए ॥४०॥ शौचं स्थैर्यमदम्भो वैराग्यं चात्मनिग्रहः कार्यः। दृश्या भवगतदोषाश्चिन्त्यं देहाद्रिवरुप्यम् ॥४१॥ भावार्थ : शौच, स्थिरता, अदम्भ, वैराग्य, और आत्मनिग्रह करना चाहिए । संसारगत दोषों पर चिन्तन करना चाहिए और शरीर आदि की विरूपता-विनाशिता का विचार करना चाहिए ॥४१॥ अधिकार बीसवाँ २९९

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