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उपचारणे तद्युक्तं स्याद् घृतं दहतीतिवत् ॥१४७॥
भावार्थ : सम्यक्त्व को जो तीर्थंकरनाम का हेतु (कारण) बताया जाता है, और उत्कृष्ट संयम को आहारक शरीर का हेतु कहा जाता है, क्योंकि आहारक शरीर उत्कृष्ट ( अतिशय ) लब्धिवान् संयमी मुनि को ही होता है । पहले के तप और संयम को स्वर्ग का हेतु कहा गया है, वह 'घी जलता है' ऐसा कहने की तरह उपचार से उपयुक्त कथन है || १४६-१४७॥ येनांशेनात्मनो योगस्तेनांशेनाश्रवो मतः । येनांशेनोपयोगस्तु तेनांशेनास्य संवरः ॥ १४८ ॥
भावार्थ : जितने अंशों में आत्मा का योग हो, उतने अंशों में उसे आश्रव माना गया है, और जितने अंश में ज्ञानादि का उपयोग है, उतने अंश में उसका संवर है ॥ १४८ ॥ येनासावंशविश्रान्तौ बिभ्रदाश्रवसंवरौ । भात्यादर्श इव स्वच्छास्वच्छभागद्वयः सदा ॥ १४९ ॥
भावार्थ : इस कारण यह आत्मा अंश की विश्रान्ति में आश्रव और संवर को धारण करती हुई स्वच्छ ( निर्मल) और अस्वच्छ (मलिन) इस तरह दो भागों को धारण करने वाले दर्पण की तरह सदा सुशोभित होती है ॥ १४९ ॥
शुद्धैव ज्ञानधारा स्यात् सम्यक्त्व प्राप्त्यनन्तरम् ।
अधिकार अठारहवाँ
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