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ही आश्रव और संवररूप नियत (निश्चित) है ॥१३९॥ अज्ञानाद्विषयासक्तो बध्यते विषयैस्तु न । ज्ञानाद्विमुच्यते चात्मा, न तु शास्त्रादिपुद्गलात् ॥१४०॥
भावार्थ : आत्मा अज्ञान से विषयासक्त होकर कर्मों से बंधती है, परन्तु विषयों से नहीं; तथैव आत्मा ज्ञान से मुक्त होती है, शास्त्रादि पुद्गल से मुक्त नहीं होती ॥१४०॥ शास्त्रं गुरोश्च विनयं क्रियामावश्यकानि च । संवरांगतया प्राहुर्व्यवहारविशारदाः ॥१४१॥
भावार्थ : शास्त्र, गुरुविनय, क्रिया और आवश्यक इन सबका व्यवहार में पारंगत पुरुषों ने संवर के अंगरूप में कहा गया है ॥१४१॥ विशिष्टा वाक्तनुस्वान्तपुद्गलास्ते पलावहाः । ये तु ज्ञानादयो भावाः संवरत्वं प्रयान्ति ते ॥१४२॥
भावार्थ : वाणी, शरीर और मन के जो विशिष्ट पुद्गल हैं, वे फलदायक नहीं हैं, परन्तु आत्मा के जो ज्ञानादिभाव हैं, वे ही संवररूप को प्राप्त करते हैं ॥१४२॥ ज्ञानादिभावयुक्तेषु शुभयोगेषु तद्गतम् । संवरत्वं समारोप्य स्मयन्ते व्यवहारिणः ॥१४३॥ ___ भावार्थ : व्यवहार को जानने वाले व्यक्ति ज्ञानादि परिणामों से युक्त शुभ योगों में उनमें निहित संवरत्व का अधिकार अठारहवाँ
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