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ज्ञानयोगतपः शुद्धमित्याहुर्मुनिपुंगवाः । तस्मान्निकाचितस्यापि कर्मणो युज्यते क्षयः ॥१६३॥
भावार्थ : ज्ञानयोगरूप तप को ही श्रेष्ठ मुनियों ने शुद्ध तप कहा है, क्योंकि उससे निकाचित कर्म का भी श्रय हो जाता है ॥१६३॥
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यदिहाऽपूर्वकरणं श्रेणि, शुद्धा च जायते । ध्रुवः स्थितिक्षयस्तत्र स्थितानां प्राच्यकर्मणाम् ॥१६४॥ भावार्थ : क्योंकि उस ज्ञानयोगरूप तप में अपूर्वकरण और शुद्ध श्रेणी उत्पन्न होती है । इससे पूर्वकर्मों की स्थिति अवश्य ही नष्ट हो जाती है ॥१६४॥
तस्माज्ज्ञानमयः शुद्धस्तपस्वी भावनिर्जरा । शुद्धनिश्चयतस्त्वेषा सदा शुद्धस्य कापि ॥ १६५॥
भावार्थ : इस कारण ज्ञानमय शुद्ध तपस्वीभाव निर्जरारूप है और शुद्ध-निश्चयनय से सदा शुद्ध आत्मा (सिद्ध) के बिल्कुल निर्जरा नहीं होती ॥१६५॥
बन्धः कर्मात्मसंश्लेषो द्रव्यतः स चतुर्विधः । तद्धेत्वध्यवसायात्मा भावतस्तु प्रकीर्तितः ॥ १६६॥
भावार्थ : कर्म के साथ आत्मा का जो संश्लेष होता है, वह बंध कहलाता है । वह द्रव्य से चार प्रकार का है; और
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अध्यात्मसार