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अधिकार उन्नीसवाँ
[जिनमत-स्तुति] उत्सर्पद्व्यवहार-निश्चयकथा-कल्लोलकोलाहलत्रस्यदुर्नयवादि-कच्छपकुल-भ्रश्यत्कुपक्षाचलम् ॥ उद्यधुक्तिनदीप्रवेशसुभगं स्याद्वादमर्यादया। युक्तं श्रीजिनशासनं जलनिधिं मुक्त्वा परं नाश्रये ॥१॥
भावार्थ : व्यवहार और निश्चयकथारूपी उछलती हुई तरंगों के कोलाहल से दुःखी होते हुए दुर्नय (एकान्त) वादीरूपी कछुओं का झुंड है। जिसमें कुपक्षरूपी पर्वत गिर रहे हैं,
और अकाट्य युक्तियोंरूपी नदियों के प्रवेश से मनोहर है, तथा स्याद्वाद की मर्यादा से युक्त है, ऐसे जिनशासनरूपी महासमुद्र को छोड़कर मैं दूसरे किसी का आश्रय नहीं लेता ॥१॥ पूर्णः पुण्यनयप्रमाणरचनापुष्पैः सदास्थारसैसः । तत्त्वज्ञानफलः सदा विजयते स्याद्वादकल्पद्रुमः ॥ एतस्मात्पतितैः प्रवादकुसुमैः षड्दर्शनारामभूः भूयः सौरभमुद्वमत्यभिमतैरध्यात्मवार्तालवैः ॥२॥
भावार्थ : सम्यक् आस्थारूपी पवित्र नयों और प्रमाणों की रचनारूप पुष्पों से जो परिपूर्ण है, जिसके तत्त्वज्ञानरूपी अधिकार उन्नीसवाँ
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