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संग्रहनय से ही हुआ है। योग और वैशेषिक दर्शन नैगमनय से हुए हैं । तथा शब्द को ही ब्रह्म मानने वाले मीमांसकों का दर्शन शब्दनय से हुआ है। परन्तु जैनदर्शन तो सभी नयों से गुम्फित है। इस कारण जैनदर्शन की श्रेष्ठता प्रत्यक्ष ही दिखाई देती है ॥६॥ उष्मा नार्कमपाकरोति दहनं नैव स्फुलिंगावली । नाब्धि सिन्धुजलप्लवः सुरगिरिं ग्रावा न चाभ्यापतन् ॥ एवं सर्वनयैकभावगरिमस्थानं जिनेन्द्रागमम् । तत्तद्दर्शन संकथांशरचनारूपा न हन्तुं क्षमा ॥७॥
भावार्थ : जिस प्रकार घाम सूर्य को दूर नहीं कर सकता, आग की चिन्गारिया अग्नि को हटा नही सकतीं, नदी के पानी की बाढ़ समुद्र को दूर नहीं हटा सकती, सामने गिरता हुआ पाषाणखण्ड मेरुपर्वत को डिगा नहीं सकता, इसी प्रकार समस्तनयों के अद्वितीयभाव के महास्थानरूप जिनेन्द्रागम को उस-उस दर्शन (परदर्शन) का आंशिक रचनारूप कथन पराभूत (पराजित) करने में समर्थ नहीं है ॥७॥ दुःसाध्यं परवादिनां परमतक्षेपं विना स्वं मतं, तत्क्षेपे च कषायपंककलुषं चेतः समापद्यते ॥ सोऽयं निःस्वनिधिग्रहव्यवसितो वेतालकोपक्रमो, नाऽयं सर्वहितावहे जिनमते तत्त्वप्रसिद्ध्यर्थिनाम् ॥८॥
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अध्यात्मसार