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क्षणभर में क्षीण हो जाता है तथा उससे मार्ग निर्मल (स्वच्छ) हो जाते हैं, नेत्रों से गाढ़ निद्रा दूर हो जाती है। प्रमाणरूपी दिवस के प्रारम्भ होने पर कल्याणकारिणी नयवाणी प्रौढ़ता धारण करती है । वह जैनागमरूपी सूर्य समृद्ध हो ॥४॥ अध्यात्मामृतवर्षिभिः कुवलयोल्लासं विलासैर्गवां । तापव्यापविनाशिभिर्वितनुते लब्धोदयो यः सदा ॥ तर्कस्थाणुशिरः स्थितः परिवृत्तः स्फारैर्नयैस्तारकैः । सोऽयं श्रीजिनशासनामृतरुचिः कस्यति नो रुच्यताम् ॥५॥
भावार्थ : जैनागमरूपी चन्द्रमा सदा उदय होकर अध्यात्मरूपी अमृत की वर्षा करता है तथा ताप (धूप) के प्रसार (संचार) को नाश करने वाले वाणी के विलास से पृथ्वी के मंडल (कमल) को उल्लसित (विकसित) करता है । जो तर्करूपी शंकर के मस्तक पर स्थित है। तथा जो देदीप्यमान नयरूपी तारों से घिरा हुआ है । ऐसा जिनशासनरूपी चन्द्रमा किसे रुचिकर नहीं होता ? ॥५॥ बौद्धानामृजुसूत्रतो मतमभूद् वेदान्तिनां संग्रहात् । सांख्यानां तत एव नैगमनयाद् योगश्च वैशेषिकः ॥ शब्दब्रह्मविदोऽपि शब्दनयतः सर्वैर्नयैर्गुम्फिता । जैनी दृष्टिरितीह सारतरता प्रत्यक्षमुवीक्ष्यते ॥६॥
भावार्थ : बौद्धदर्शन ऋजुसूत्रनय से हुआ है, वेदान्तियों का दर्शन संग्रहनय के आश्रित हुआ है, सांख्यदर्शन भी अधिकार उन्नीसवाँ
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