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भावार्थ : परवादियों (अन्यदर्शनियों) के लिए दूसरे के मत पर आक्षेप (खण्डन, तिरस्कार) किये बिना अपने मत को सिद्ध करना दुष्कर है। और उस तिरस्कार से चित्त कषायरूपी कीचड़ से मलिन होता है। अतः यह व्यापार निर्धन के खजाने को ग्रहण करने में उद्यत वेताल के क्रोध सा उपक्रम है। ऐसा कदम (उपक्रम) तत्त्व के जिज्ञासार्थियों के लिए सर्व-हितकारी जैनदर्शन में नहीं है ॥८॥ वार्ताः सन्ति सहस्रशः प्रतिमतं ज्ञानांशबद्धक्रमाश् चेतस्तासु न नः प्रयाति नितरां लीनं जिनेन्द्रागमे । नोत्सर्पन्ति लताः कति प्रतिदिशं पुष्पैः पवित्रा मधौ, ताभ्यो नैति रतिं रसालकलिकारक्तस्तु पुंस्कोकिलः ॥९॥
भावार्थ : प्रत्येक दर्शन में ज्ञान के अलग-अलग अंश से क्रमबद्ध हजारों बातें हैं । फिर भी जिनेश्वर के आगम में अत्यन्त लीन हुआ हमारा मन उन बातों की ओर जाता ही नहीं। क्या वसन्तऋतु में प्रत्येक दिशा में फूलों से पवित्र (सुशोभित) कई लताएं नहीं दिखती ? बहुत-सी दिखती हैं, तथापि आम की मंजरी में आसक्त बना हुआ नरकोयल उन (अन्य) लताओं पर रति (प्रीति) नहीं करता ॥९॥ शब्दो वा मतिरर्थ एव वसु वा जातिः क्रिया वा गुणः । शब्दार्थः किमिति स्थिता प्रतिमत सन्देहशंकुव्यथा ॥ अधिकार उन्नीसवाँ
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