Book Title: Adhyatma Sara
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 284
________________ जैनेन्द्रे तु मते न सा प्रतिपद जात्यन्तराथस्थितेः । सामान्यं च विशेषमेव च यथा तात्पर्यमन्विच्छति ॥१०॥ भावार्थ : क्या आत्मा शब्दरूप है? क्या वह बुद्धिरूप है? या वह जातिरूप है, क्रियारूप है अथवा गुणरूप है? क्या वह शब्दार्थरूप है? इस प्रकार प्रत्येक मत (दर्शन) में संदेहरूपी कील की पीड़ा विद्यमान है । किन्तु जैनेन्द्रमत (दर्शन) में तो प्रत्येक पद में जात्यन्तर का अर्थ होने से उस प्रकार की संदेहव्यथा है ही नहीं; क्योंकि वह सामान्य और विशेष को तात्पर्य के अनुसार स्पष्टरूप से ढूँढ लेता है ॥१०॥ यत्रानर्पितमादधाति गुणतां मुख्यं च वस्त्वर्पितं, तात्पर्यानवलम्बनेन तु भवेद् बोधः स्फुटं लौकिकः ॥ संपूर्णं त्ववभासते कृतधियां कृत्स्नाद् विवक्षाक्रमात् । तां लोकोत्तरभंगपद्धतिमयीं स्याद्वादमुद्रां स्तुमः ॥११॥ भावार्थ : जिसमें अनर्पित वस्तु गौणत्व को और अर्पित वस्तु मुख्यत्व को प्राप्त करती है तथा तात्पर्य का अवलम्बन लिये बिना ही (वस्तु का) लौकिक ज्ञान स्पष्ट हो जाता है । कुशल बुद्धिमान पुरुषों को समग्र विवक्षा (कहने की इच्छा) के क्रम से सम्पूर्ण वस्तु प्रतिभासित हो जाती है। उस लोकोत्तर भंग (अलौकिक विकल्परचना) की पद्धति से युक्त स्याद्वादमुद्रा की हम स्तुति करते हैं ॥११॥ २८४ अध्यात्मसार

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