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क्रमः ।
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आत्मीयानुभवाश्रयार्थविषयोऽप्युच्चैर्यदीयः म्लेच्छानामिव संस्कृतं तनुधियामाश्चर्यमोहावहः ॥ व्युत्पत्ति-प्रतिपत्तिहेतुविततस्याद्वादवाग्गुम्फितम् तं जैनागममाकलय्य न वयं व्याक्षेपभाजः क्वचित् ॥१२॥ भावार्थ : अपने अनुभव का आश्रय ही जिसके अर्थ का विषय है, जो जिनागम का उच्चक्रम है, वह म्लेच्छों के लिए संस्कृत भाषा की तरह अल्पबुद्धि वालों के लिए आश्चर्य तथा मोह उत्पन्न करने वाला है । व्युत्पत्ति, प्रतिपत्ति तथा हेतुओं से विस्तृत स्याद्वाद की वाणी से रचित जिनागम को भलीभांति हृदयंगम करके हम कहीं पर भी आक्षेप के भाजन (तिरस्कार के पात्र) नहीं होते ॥ १२ ॥
मूलं सर्ववचोगतस्य विदितं जैनेश्वरं शासनम् । तस्मादेव समुत्थितैर्नयमतैस्तस्यैव यत्खण्डनम् ॥ एतत् किंचन कौशलं कलिमलच्छन्नात्मनः स्वाश्रितां । शाखां छेत्तुमिवोद्यतस्य कटुकोदर्काय तर्कार्थिनः ॥१३॥
भावार्थ : समस्त वचनों के अभिप्राय का मूल यह जिनशासन सुविदित (सुप्रसिद्ध ) है । इस जिनशासन से ही उत्पन्न नय के मतों से उसी का खण्डन करना अपनी ही आधाररूप शाखा को काटने को उद्यत हुए मनुष्य की तरह है पापमल से आच्छादित हुए तर्कार्थियों की तुच्छ कुशलता उन्हीं के लिए कटु परिणाम लाने वाली है ॥१३॥
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अधिकार उन्नीसवाँ
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