Book Title: Adhyatma Sara
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 292
________________ भावार्थ : इसलिए प्रशस्त आलम्बनों से प्रायः प्रशस्तभाव ही होते हैं । इस आलम्बन के अभिलाषी योगी को अपना मन शुभ आलम्बन में जोड़ना चाहिए ॥१५॥ सालम्बनं क्षणमपि क्षणमपि कुर्यान्मनो निरालम्बम् । इत्यनुभवपरिपाकादाकालं स्यान्निरालम्बम् ॥१६॥ भावार्थ : मन को क्षण में सालम्बन (शुभ आश्रय से युक्त) करना और क्षण भर में आलम्बनरहित करना चाहिए । यों करते-करते अनुभव का परिपाक हो जाने पर आजीवन (सदा के लिए) मन निरालम्बन (आलम्बन-रहित) हो जाता है ॥१६॥ आलम्ब्यैकपदार्थं यदा न किंचिद् विचिन्तयेदन्यत् । अनुपनतेन्धनवन्हिवदुपशान्त स्यात्तदा चेतः ॥१७॥ ___भावार्थ : जब मन एक पदार्थ का आलम्बन लेकर उसके सिवाय अन्य कुछ भी चिन्तन न करे, तब उस अग्नि की तरह शान्त हो जाता है, जिसे इन्धन नहीं मिलता ॥१७॥ शोक-मद-मदन-मत्सर-कलह-कदाग्रह-विषाद-वैराणि । क्षीयन्ते शान्तहृदामनुभव एवात्र साक्षी नः ॥१८॥ भावार्थ : शान्त हृदय वालों के शोक, मद, काम, मत्सर, कलह, कदाग्रह, विषाद और वैर ये सब क्षीण हो जाते हैं, शमयुक्त चित्त वालों के शोक (इष्टवियोगादि से उत्पन्न चित्त का उद्वेग अथवा पश्चात्ताप) जाति आदि ८ प्रकार के मद, २९२ अध्यात्मसार

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