Book Title: Adhyatma Sara
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 295
________________ भावार्थ : जो पुरुष आत्मा और मन के गुणों की वृत्तियों का विश्लेषण करके उनके प्रत्येक पद (स्थान) को भलीभांति विशेष प्रकार से जान लेता है, वह कुशलानुबन्ध से युक्त होकर ब्रह्मत्व को प्राप्त कर लेता है || २५ ॥ ब्रह्मस्थो ब्रह्मज्ञो ब्रह्म प्राप्नोति तत्र किं चित्रम् | ब्रह्मविदां वचसाऽपि ब्रह्मविलासननुभवामः ॥२६॥ I भावार्थ : ब्रह्म में स्थित ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म को प्राप्त करता है, इसमें क्या आश्चर्य है ? किन्तु हमें तो ब्रह्मज्ञानियों के वचन से भी ब्रह्मविलास का अनुभव होता है । जो ब्रह्म अर्थात् परमात्मा में शुद्ध ज्ञानोपयोग में स्थित ( ओतप्रोत ) रहता है, तथा ब्रह्म (निर्विकार चैतन्य) को जानता है, वह ब्रह्म ( शुद्ध आत्मा) को प्राप्त करे, इसमें आश्चर्य ही क्या है? कुछ भी आश्चर्य नहीं । ब्रह्म ( शुद्ध चैतन्य) के ज्ञाता (ब्रह्मज्ञानियों) के वचन से भी ब्रह्म के विलास (चिदानन्द के उल्लास) को हम अपनी बुद्धि से साक्षात् अनुभव करते हैं, प्रत्यक्ष जान सकते हैं ॥२६॥ ब्रह्माध्ययनेषु मतं ब्रह्माष्टदशसहस्त्रपदभावैः । येनाऽऽप्तं तत्पूर्णं योगी स ब्रह्मणः परमः ॥२७॥ भावार्थ : ब्रह्म के अध्ययन में १८ हजार पदों के भावों से युक्त ब्रह्म माना गया । जिस योगी ने उसे सम्पूर्ण रूप में प्राप्त कर लिया है, वह योगी ब्रह्म से परम (श्रेष्ठ) है ||२७|| अधिकार बीसवाँ २९५

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