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त्यक्तोन्माद-विभज्यवादरचनामाकर्ण्य कर्णामृतम् । सिद्धांतार्थरहस्यवित् क्व लभतामन्यत्र शास्त्रे रतिम् ॥ यस्यां सर्वनया विशन्ति न पुनर्व्यस्तेषु तेष्वेव या । मालायं मणयो लुठन्ति न पुनर्व्यस्तेषु मालाऽपि सा ॥१४॥
भावार्थ : उन्माद का त्याग करके विभाग करने योग्य (अनेकान्त) वाद की रचनारूप कर्णामृत का श्रवण करके सिद्धान्त-प्रतिपादित अर्थ का रहस्यज्ञ पुरुष अन्य किस शास्त्र में प्रीति सम्पादन कर सकता है? जिस रचना में सभी नय का प्रवेश है, किन्तु वे नय अलग-अलग हों तो उन बिखरे हुए नयों में वह रचना नहीं होती । जैसे माला में मणियाँ होती हैं, लेकिन वे मणियाँ बिखरी हुई अलग-अलग हों तो उनमें माला नहीं होती ॥१४॥ अन्योऽन्यप्रतिपक्षभाववितथान् स्वस्वार्थसत्यान्नयान् । नापेक्षा विषमाग्रहैविभजते माध्यस्थ्यमास्थाय यः ॥ स्याद्वादे सुपथे निवेश्य हरते तेषां नु दिङ्मूढताम् । कुन्देन्दुप्रतिमं यशो विजयिनस्तस्यैव संवर्धते ॥१५॥
भावार्थ : परस्पर शत्रु (विरोध) भाव के कारण असत्य और अपने-अपने अर्थ में सत्य नयों का जो पुरुष अपेक्षाविषयक आग्रह से माध्यस्थ्यभाव का आश्रय लेकर विभाग कर (छाँट) लेता है, तथा जो स्याद्वादरूपी सुमार्ग पर चित्त को २८६
अध्यात्मसार