________________
विषयेषु कल्पितेषु च पुरः स्थितेषु च निवेशितं रजसा । सुख-दुःखयुग्बहिर्मुखमाम्नातं क्षिप्तमिह चित्तम् ॥४॥
भावार्थ : कल्पित और सामने विद्यमान विषयों में राग के स्थापित हुए, सुख और दुःख से युक्त तथा अध्यात्म से बहिर्मुख चित्त को क्षिप्त कहते हैं ॥४॥ क्रोधादिभिर्नियमितं विरुद्धकृत्येषु यत्तमोभूम्ना । कृत्याकृत्यविभागासंगतमेतन्मनो मूढम् ॥५॥
भावार्थ : जो मन तमोगुण के बाहुल्य से विरुद्ध कार्यों में क्रोधादि से नियमित तथा कृत्य-अकृत्य के विभाग (विवेक) से रहित है, वह मन मूढ कहलाता है ॥५॥ सत्वोद्रेकात् परिहृतदुःखनिदानेषु सुखनिदानेषु । शब्दादिषु प्रवृत्तं सदैव चित्तं तु विक्षिप्तम् ॥६॥
भावार्थ : सत्वगुण की अधिकता के कारण दुख के मूल कारणों से रहित और शब्दादि सुख के मूल कारणों में निरन्तर प्रवृत्त हुआ चित्त विक्षिप्त कहलाता है ॥६॥ अद्वेषादिगुणवतां नित्य खेदादिदोष परिहारात् । सदृशप्रत्ययसंगतमेकाग्रं चित्तमाम्नातम् ॥७॥
भावार्थ : अद्वेष आदि गुणवाला, निरन्तर खेद आदि दोषों के त्याग से समान परिणाम को प्राप्त जो मन है, उसे एकाग्र कहा गया है ॥७॥ अधिकार बीसवाँ
___ २८९