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___ भावार्थ : जैसे दुर्बल क्षुधातुर व्यक्तियों के लिए चक्रवर्ती का गरिष्ठ भोजन हितकर नहीं होता, वैसे ही अल्पबुद्धि वाले मनुष्यों को यह आत्मतत्त्व हितकारी नहीं होता ॥१९३॥ ज्ञानांशदुर्विदग्धस्य तत्त्वमेतदनर्थकृत् । अशुद्धमंत्रपाठस्य फणिरत्नग्रहो यथा ॥१९४॥
भावार्थ : जैसे अशुद्धमंत्रपाठ करने वाले को शेषनाग का रत्न ग्रहण करना अनर्थकारी होता है, वैसे ही ज्ञान का अंश पाकर अपने को महाविद्वान् मानने वालों के लिए यह तत्त्व अनर्थकारी होता है ॥१९४॥ व्यवहाराविनिष्णातो यो ज्ञीप्सति विनिश्चयम् । कासारतरणाशक्तः स तितीर्षति सागरम्॥१९५॥
भावार्थ : जो पुरुष व्यवहार नय में कुशल नहीं है, वह अगर निश्चय नय को जानना चाहता है तो वह उसी तरह है, जिस तरह छोटे से तालाब को पार करने में असमर्थ कोई व्यक्ति समुद्र पार करना चाहता हो ॥१९५।। व्यवहारं विनिश्चित्य ततः शुद्धनयाश्रितः । आत्मज्ञानरतो भूत्वा परमं साम्यमाश्रयेत् ॥१९६॥
भावार्थ : इसलिए शुद्धनय का आश्रय लेने वाले पुरुष को पहले व्यवहार का निश्चय करके तदनन्तर आत्मज्ञान में रत होकर उत्कृष्ट समता को प्राप्त करना चाहिए ॥१९६॥ २७८ ॥इति आत्मविनिश्चयाधिकारः ॥ अध्यात्मसार