________________
भाव से वह बन्ध के हेतुरूप अध्यवसाय के स्वरूप वाला कहलाता है ॥१६६॥ वेष्टयत्यात्मनाऽऽत्मानं यथा सर्पस्तथाऽसुमान् । तत्तद्भावैः परिणतो बध्नात्यात्मानमात्मना ॥१६७॥
भावार्थ : जैसे साँप अपने शरीर से अपने शरीर को लपेट लेता है, वैसे प्राणी भी उस उस भाव से परिणमन पाकर अपनी आत्मा (अपने परिणाम) से अपनी आत्मा को बांध लेता है॥१६७।। बध्नाति स्वं-यथा कोशकारकीटः स्वतन्तुभिः । आत्मनः स्वगतै वैबन्धने सोपमा स्मृता ॥१६८॥
भावार्थ : जैसे रेशम का कीड़ा अपने तन्तुओ (रेशों से) अपने शरीर को बांधता है, वैसे ही आत्मा भी अपने अन्दर स्थित भावों से बन्धता है, यह उपमा ज्ञानियों ने दी है ॥१६८॥ जन्तूनां सापराधानां बन्धकारी न हीश्वरः। तद्वन्धकानवस्थानादबन्धस्याप्रवृत्तितः ॥१६९॥
भावार्थ : अपराधी प्राणियों को बन्धन में डालने वाला ईश्वर नहीं है; क्योंकि उसके बन्ध करने वाले का अनवस्थान है और बन्धरहित को प्रवृत्ति का अभाव है ॥१६९॥ न चाज्ञानप्रवृत्त्यर्थे ज्ञानवन्नोदना ध्रुवा । अबुद्धिपूर्वकार्येषु स्वप्नादौ तददर्शनात् ॥१७०॥
भावार्थ : अज्ञान में प्रवृत्त करने के लिए ज्ञानवान की अधिकार अठारहवाँ
२७१