________________
भावलिंगरता ये स्युः सर्वसारविदो हि ते । लिंगस्था वा गृहस्था वा सिध्यन्ति धूतकल्मषाः ॥१८२॥
भावार्थ : जो भावलिंग में रहते हैं, वे सर्वसार के ज्ञाता हैं, इसलिए वे साधुवेष में हों, या गृहस्थ-वेष में हों, फिर भी वे पाप का क्षय करके सिद्धिपद प्राप्त करते हैं ॥१८२॥ भावलिंगं हि मोक्षांगं द्रव्यलिंगमकारणम् । द्रव्यं नात्यन्तिकं यस्मान्नाप्येकान्तिकमिष्यते ॥१८३॥
भावार्थ : भावलिंग ही मोक्ष का अंग (कारण) है, द्रव्यलिंग मोक्ष का कारण नहीं है; क्योंकि द्रव्य आत्यन्तिक अभीष्ट नहीं है, और न ही ऐकान्तिक अभीष्ट है ॥१८३॥ यथाजातदशालिंगमर्थादव्यभिचारि चेत् । विपक्षबाधकाभावात्तधेतुत्वे तु का प्रमा ? ॥१८४॥
भावार्थ : जिस प्रकार से जन्म हुआ, वैसी दशारूप वेष मोक्षरूपी अर्थ से अव्यभिचारी है, यदि ऐसा कहते हों तो विपक्षबाधक का अभाव होने से मृग आदि भी यथाजात (नग्न) दशा में रहते हैं, उनका भी मोक्ष होने लगेगा और सभी नग्नों का यदि मोक्ष इष्ट नहीं है, तो उस नग्नत्व को मोक्ष का कारण कहने में क्या प्रमाण है? ॥१८४॥ वस्त्रादिधारेणच्छा चेद् बाधिका तस्य तां विना । धृतस्य किमवस्थाने करादेरिव बाधकम् ॥१८५॥
अधिकार अठारहवाँ
२७५