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प्रेरणा होती ही नहीं । क्योंकि स्वप्नादि में अज्ञानपूर्वक किये जाने वाले कार्यों में वह प्रेरणा दिखती नहीं ॥ १७० ॥
तथाभव्यतया जन्तुर्नोदितश्च प्रवर्त्तते ।
बध्नन् पुण्यं च पापं च परिणामानुसारतः ॥ १७१ ॥
भावार्थ : परिणाम के अनुसार पुण्य और पापकर्म का बन्ध करता हुआ जीव अपनी तथाप्रकार की भव्यता से प्रेरित होता है ॥१७१॥ शुद्धनिश्चयतस्त्वात्मा न बद्धो बन्धशंकया । भयकम्पादिकं किन्तु रज्जावहिमतेरिव ॥ १७२॥
भावार्थ : शुद्ध निश्चयनय से तो आत्मा बँधती ही नहीं, अबन्धक है; परन्तु बन्ध की शंका से रस्सी में साँप की भ्रांति की तरह भय, कंप आदि को प्राप्त करता है ॥ १७२ ॥ रोगस्थित्यनुसारेण प्रवृत्ती रोगिमो यथा । भवस्थित्यनुसारेण तथा बन्धेऽपि वर्ण्यते ॥ १७३॥
भावार्थ : जैसे रोग की स्थिति के अनुसार रोगी की प्रवृत्ति होती है, वैसे ही भवस्थिति के के विषय में भी प्रवृत्ति कही है ॥१७३॥
अनुसार जीव की बन्ध
दृढ़ाज्ञानमयीं शंकामेनामपनिनीषवः । अध्यात्मशास्त्रमिच्छन्ति श्रोतुं वैराग्यकांक्षिणः ॥ ९७४ ॥ भावार्थ : इस दृढ़ अज्ञानमयी शंका को दूर करने के
अध्यात्मसार
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