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योग और कषायरूप परिणामों को आभ्यन्तर आश्रव समझना चाहिए ॥१३२॥ भावना-धर्म-चारित्र-परीषहजयादयः । आश्रवोच्छेदिनो धर्मा आत्मनो भावसंवराः ॥१३३॥
भावार्थ : भावना दशविध उत्तम धर्म, चारित्र और परीषह-जय आदि आश्रवों के विनाशक जो आत्मा के धर्म हैं, वे भावसंवर कहलाते हैं ॥१३३॥ आश्रवः संवरो न स्यात् संवरश्चाश्रवः क्वचित् । भवमोक्षफलाभेदोऽन्यथा स्याद्धेतुसंकरात् ॥१३४॥
भावार्थ : आश्रव संवर नहीं हो सकते और न कभी संवर ही आश्रव हो सकते हैं । अन्यथा (अगर ऐसा न मानें तो) हेतु के सांकर्यदोष (एक दूसरे में मिश्रित दोष) होने से संसार और मोक्ष के फल की अभिन्नता हो जाएगी ॥१३४॥ कर्माश्रवांश्च संवृणान्नात्मा भिन्नैर्निजाशयैः । करोति न परापेक्षामलंभूष्णुं स्वतः सदा ॥१३५॥
भावार्थ : आत्मा अपने भिन्न-भिन्न परिणामों से कर्मों का आश्रव (ग्रहण) करता हुआ और संवर (निरोध) करता हुआ भी पर की अपेक्षा नहीं रखता, क्योंकि आत्मा सदा अपने आप में स्वतः समर्थ है ॥१३५॥ अधिकार अठारहवाँ
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