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संसारिणां च सिद्धानां न शुद्धनयतो भिदा ॥१५४॥
भावार्थ : इस प्रकार अशुद्ध नय से ही संसारी जीवों का संवर और आश्रव का कथन है, परन्तु सिद्धजीवों का भी शुद्ध नय से कोई भेद नहीं होता । पहले कहे अनुसार अशुद्ध नय से यानी सामान्य और विशेष अंश की शुद्धि वगैरह वस्तुधर्म के ग्रहण करने को लेकर अशुद्ध नैगमादि द्रव्यार्थिकनय का स्वीकार करने से संसारी जीवों के लिए संवर और आश्रव का कथन (विचार) प्रवृत्त होता है; जब कि मुक्तजीवों के लिए तो शुद्ध नय से यानी सर्वांशशुद्ध पर्यायार्थिकनय का आश्रय लेने से भेद है ही नहीं। अतः वहाँ आश्रव और संवर का विचार है ही नहीं । वास्तव में अशुद्धनय ही आत्मा को आश्रव-संवर-पर्यायरूप मानता है । शुद्ध नय तो आत्मा को केवल ज्ञानादिस्वरूप मानता है । उसके मतानुसार जीव के संसारी और सिद्ध दो भेद नहीं होते, आत्मा को वह (नय) आश्रव-संवर से भिन्न मानता है ॥१५४॥ निर्जरा कर्मणां शाटो, नात्माऽसौ कर्मपर्ययः । येन निर्जीर्यते कर्म स भावस्त्वात्मलक्षणम् ॥१५५॥
भावार्थ : कर्मों का परिशाटन क्षय निर्जरा कहलाता है। निर्जरा कर्म का पर्याय होने से आत्मारूप नहीं है, परन्तु जिस भाव से कर्मनिर्जरा होती है, उस भाव को आत्मा का लक्षण अधिकार अठारहवाँ
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