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हेतुभेदाद् विचित्रा तु योगधारा प्रवर्तते ॥१५०॥
भावार्थ : सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद ज्ञानधारा शुद्ध ही होती है और हेतु के भेद के कारण विचित्र योगधारा प्रवृत्त होती है ॥१५०॥ सम्यग्दृशो विशुद्धत्वं सर्वास्वपि दशास्वतः । मृदुमध्याधिभावस्तु क्रियावैचित्र्यतो भवेत् ॥१५१॥
भावार्थ : उसके बाद सम्यग्दृष्टि की समस्त दशाओं में विशुद्धता हो जाती है । जधन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भाव तो क्रिया की विचित्रता के कारण होता है ॥१५१॥ यदा तु सर्वतः शुद्धिर्जायते धारयोर्द्वयोः । शैलेशीसंज्ञितः स्थैर्यात् तदा स्यात् सर्वसंवरः ॥१५२॥
भावार्थ : और जब सब प्रकार से दोनों धाराओं की शुद्धि होती है, तब शैलेशी नामक स्थैर्य से सर्वसंवर होता है ॥१५२॥ ततोऽर्वाग् यच्च यावच्च स्थिरत्वं तावदात्मनः । संवरो योगचाञ्चल्यं यावत् तावत् किलाश्रवः ॥१५३॥
भावार्थ : उससे पहले जैसी और जितनी आत्मा की स्थिरता हो, उतना ही आत्मा का संवर जानना और जितनी और जैसी योगों की चपलता हो, उतना ही आश्रव समझना ॥१५३।। अशुद्धनयतश्चैवं संवराश्रवसंकथा । २६६
अध्यात्मसार