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आरोपण करके मन में गर्वित होते हैं । ज्ञान, प्रशम और कारुण्य आदि आत्मा के परिणामों से युक्त शुभ योगों में यानी धर्म के निमित्त से प्रवृत्त मन-वचन-काया के व्यापारों में उन भावों में स्थित संवरत्व - कर्मनिरोधरूप स्वभाव का आरोपण (संकल्प) करके व्यवहारज्ञ पुरुष अभिमानपूर्वक कहते हैं कि 'हम धर्मात्मा हैं ।' वास्तव में अभिमान उसी में जागृत होता है, जो वस्तुतत्व को न जानता हो, वस्तुतत्वज्ञ को अभिमान नहीं होता ॥१४३॥ प्रशस्तरागयुक्तेषु चारित्रादिगुणेष्वपि । शुभाश्रवत्वमारोप्य फलभेदं वदन्ति ते ॥१४४॥
भावार्थ : प्रशस्तराग से युक्त चारित्रादि गुणों के विषय में भी आश्रवत्व का आरोप करके वे फलभेद बताते हैं ॥ १४४ ॥
भवनिर्वाणहेतूनां वस्तुतो न विपर्ययः । अज्ञानादेव तद्भानं ज्ञानी तत्र न मुह्यति ॥ १४५॥
भावार्थ : वास्तव में संसार और मोक्ष के हेतुओं में विपर्यास नहीं होता, फिर भी उसका भान अज्ञान से होता है । उसमें ज्ञानी मोहित नहीं होता ॥ १४५ ॥
तीर्थकृन्नामहेतुत्वं यत्समयक्त्वस्य वर्ण्यते । यच्चाहारकहेतुत्वं संयमस्यातिशायिनः ॥ १४६ ॥ तपःसंयमयोः स्वर्गहेतुत्वं यच्च पूर्वयोः ।
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अध्यात्मसार