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निमित्तमात्रभूतास्तु हिंसाऽहिंसादयोऽखिलाः ।
ये परप्राणिपर्याया न ते स्वफलहेतवः ॥ १३६॥
भावार्थ : हिंसा, अहिंसा आदि सब केवल निमित्तभूत ही हैं, क्योंकि जो परप्राणी के पर्याय है, वे अपने फल के हेतुरूप नहीं हैं ॥ १३६ ॥
व्यवहारविमूढस्तु हेतूंस्तानेव मन्यते । बाह्यक्रियारतस्वान्तस्तत्त्वं गूढं न पश्यति ॥१३७॥
भावार्थ : किन्तु व्यवहार में मूढात्मा उन हिंसादि को ही हेतुरूप मानता है, क्योंकि जिसका अन्त:करण बाह्य क्रियाओं में रचा-पचा है, वह गहन तत्त्व को नहीं देखता - समझता ॥१३७॥
हेतुत्वं प्रतिपद्यन्ते नवैते नियमास्पृशः ।
यावन्तः आश्रवाः प्रोक्तास्तावन्तो हि परिश्रवाः ॥१३८॥ भावार्थ : चूंकि ये नियम का स्पर्श नहीं करते, इस कारण से ( हिंसादि) हेतुत्व को प्राप्त नहीं करते, क्योंकि जितने आश्रव कहे गए हैं, उतने ही संवर कहे गए हैं ॥१३८॥ तस्मादनियतं रूपं बाह्यहेतुषु सर्वथा । नियतौ भाववैचित्र्यादात्मैवाश्रव - संवरौ ॥१३९॥
भावार्थ : इस कारण बाह्य हेतुओं में सर्वथा अनियमितता (अनिश्चितता) है, अत: भावों की विचित्रता के कारण आत्मा
अध्यात्मसार
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