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मणिप्रभा-मणिज्ञान-न्यायेन शुभकल्पना । वस्तुस्पर्शितया न्याय्या यावन्नाऽनञ्जनप्रथा ॥१२९॥
भावार्थ : 'मणि की कान्ति से मणि का ज्ञान होता है', इस न्याय से वस्तु का स्पर्श करना वस्तुज्ञान के लिए उपयुक्त है; किन्तु जबतक अनञ्जनप्रथा न हो, तब तक ही शुभकल्पना न्याययुक्त है ॥१२९॥ पुण्य-पापविनिर्मुक्तं तत्त्वतस्त्वविकल्पकम् । नित्यं ब्रह्म सदा ध्येयमेषा शुद्धनयस्थितिः ॥१३०॥
भावार्थ : पुण्य और पाप से सर्वथा मुक्त, तत्त्व से निर्विकल्प, तथा नित्य ब्रह्म का सदा ध्यान करना ही शुद्ध नय की स्थिति है ॥१३०॥ आश्रवः संवरश्चाऽपि नात्मा विज्ञानलक्षणः । यत्कर्मपुद्गलादानरोधावाश्रव-संवरौ ॥१३१॥
भावार्थ : आत्मा-संवररूप भी नहीं है, वह तो विज्ञानलक्षण वाली है; जब कि आश्रव और संवर दोनों कर्मपुद्गलों के क्रमशः ग्रहणनिरोधरूप हैं ॥१३१॥ आत्माऽऽदत्तेतु यैर्भावैः स्वतन्त्रः कर्मपुद्गलात् । मिथ्यात्वाऽविरती योगाःकषायास्तेऽन्तराश्रवाः ॥१३२॥
भावार्थ : आत्मा जिन परिणामों (भावों) से स्वतन्त्र रूप से कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है, उन मिथ्यात्व, अविरति, २६०
अध्यात्मसार