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भावार्थ : यह सब व्यवहारदृष्टि से स्तुति (प्रशंसा) है, वीतराग आत्मा में अवस्थित ज्ञानादि गुणों की प्रशंसा करना ही निश्चय स्तुति समझनी चाहिए ॥ १२५ ॥ पुरादिवर्णनाद् राजा स्तुतः स्यादुपचारत: । तत्त्वतः शौर्य-गाम्भीर्य - धैर्यादि-गुणवर्णनात् ॥१२६॥
भावार्थ : नगर आदि के वर्णन से राजा की स्तुति = प्रशंसा उपचार से कहलाती है, किन्तु उसके शौर्य, गाम्भीर्य और धैर्य आदि गुणों के वर्णन करने से ही तत्त्वतः ( वास्तविक ) स्तुति कहलाती है ॥ १२६॥
मुख्योपचारधर्माणामविभागेन या स्तुतिः । न सा चित्तप्रसादाय कवित्वं कुकवेरिव ॥ १२७॥
भावार्थ : मुख्यधर्म और उपचारधर्म का विभाग किये बिना जो स्तुति की जाती है, वह कुकवि की कविता के समान चित्त को प्रसन्न करने वाली नहीं होती ॥१२७॥ अन्यथाऽभिनिवेशेन प्रत्युताऽनर्थकारिणी । सुतीक्ष्णखङ्गधारेव प्रमादेन करे धृता ॥ १२८ ॥
भावार्थ : अन्यथा हठपूर्वक की गई स्तुति वैसी ही अनर्थकारिणी है, जैसी अनर्थकारिणी असावधानी से हाथ में पकड़ी हुई पैनी तलवार की धार होती है ॥ १२८॥
अधिकार अठारहवाँ
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