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नात्मनो विकृतिं दत्ते, तदेषा नयकल्पना । शुद्धस्य रजतस्येव शुक्ति- धर्म - प्रकल्पना ॥११८॥
भावार्थ : इसलिए जैसे सीप के धर्म की कल्पना शुद्ध चाँदी के विकार को नहीं दी जाती, वैसे ही इस नय की कल्पना आत्मा के विकार को नहीं दी जाती ॥११८॥ मुषितत्वं यथा पान्थगतं पथ्युपचर्यते । तथा पुद्गलकर्मस्था विक्रियाऽऽत्मनि बालिशैः ॥११९॥ भावार्थ : जैसे किसी पथिक को चोर लूट लेता है, तब उपचार से कहा जाता है - " मार्ग में लुट गया है" । इसी प्रकार मूर्ख लोग पुद्गलकर्म में होने वाली क्रिया का आत्मा में उपचार करते हैं ॥११९॥
कृष्णः शोणोऽपि चोपाधेर्नाशुद्धः स्फटिको यथा । रक्तो द्विष्टस्तथैवात्मा संसर्गात् पुण्यपापयोः ॥१२०॥
भावार्थ : जैसे शुद्ध स्फटिकमणि उपाधि के कारण काला या लाल दिखता है, किन्तु वास्तव में वह अशुद्ध नहीं है । वैसे ही आत्मा अशुद्ध न होते हुए भी पुण्य-पाप के संयोग से रागी-द्वेषी दिखती है ॥१२०॥
सेयं नटकला तावद् यावद् विविधकल्पना ।
यद्रूपं कल्पनातीतं तत्तु पश्यत्यकल्पकः ॥१२१॥
अधिकार अठारहवाँ
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