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भावार्थ : जब आत्मा उस-उस कार्य के विकल्प से पदार्थों पर राग करता है या द्वेष करता है, तब भ्रम से आत्मा कर्म से बंधती है-जुड़ जाता है ॥१११॥ स्नेहाभ्यक्तनोरंग रेणुनाश्लिष्यते यथा । रागद्वेषानुविद्धस्य कर्मबन्धस्तथा मतः ॥११२॥
भावार्थ : जैसे किसी ने शरीर पर तेल वगैरह का मर्दन (मालिश) किया हो, उस पुरुष के अंग पर धूल (रज) चिपक जाती है, वैसे ही राग-द्वेष-युक्त आत्मा में कर्म का बन्ध माना गया है ॥११२॥ लोहं स्वक्रिययाऽभ्येति भ्रामकोपलसन्निधौ । यथाकर्म तथा चित्रं रक्तद्विष्टात्मसन्निधौ ॥११३॥
भावार्थ : जैसे लोहा अपनी क्रिया से भ्रामक पाषाण (चुम्बक) के पास खिंचा हुआ चला जाता है, वैसे ही रागी
और द्वेषी आत्मा के पास विचित्र प्रकार के कर्म खिचे हुए चले आते हैं ॥११३॥ आत्मा न व्यापृतस्तत्र रागद्वेषाशयं सृजन् । तन्निमित्तोपननेषु कर्मोपादानकर्मसु ॥११४॥
भावार्थ : उन कर्मों को ग्रहण करने में आत्मा (अकेला) व्यापार नहीं करता-प्रवृत्त नहीं होता, किन्तु राग
और द्वेष के परिणाम को उत्पन्न करता हुआ उसके निमित्त से अधिकार अठारहवाँ
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