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सम्बन्ध नहीं है, उसी तरह सन्तानी का यानी जीवादि द्रव्य की अनित्यता होने से ( निरन्तर एकाकारता न रहने से संतान भी (कार्य में प्रवर्तमान धर्म भी ) ध्रुव (नित्य) नहीं है । इससे यह सिद्ध हुआ कि देव, मनुष्य तिर्यंच और नारक - अवस्था में जो उत्पत्ति हुई, उसका मतलब हुआ - आत्मा उत्पन्न हुई; क्योंकि धर्म और धर्मी का अभेद सम्बन्ध है । इस दृष्टि से सन्तान की अनित्यता के कारण सन्तानी भी अनित्य सिद्ध हुआ ॥९५॥
व्योमाऽप्युत्पत्तिमत्तत्तदवगाहनात्मना ततः ।
नित्यता नात्मधमीणां तद्दृष्टान्तबलादपि ॥ ९६ ॥ ॥९६॥
भावार्थ : इस कारण आकाश भी उस-उस पदार्थ की अवगाहना के स्वरूप से उत्पत्तिमान है, इस दृष्टान्त के सामर्थ्य से भी आत्मधर्मों की नित्यता नहीं है ॥९६॥
ऋजुसूत्रनयस्तत्र कर्त्तृतां तस्य मन्यते ।
स्वयं परिणामत्यात्मा यं यं भावं यदा यदा ॥९७॥
भावार्थ : आत्मा स्वयं जब-जब यानी जिस-जिस भाव में परिणत होती है | वहाँ-वहाँ ऋजुसूत्रनय आत्मा को उसउस भाव का कर्त्ता मानता है ॥९७॥
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कर्त्तृत्वं परभावानामसौ नाभ्युपगच्छति । क्रियाद्वयं हि नैकस्य द्रव्यस्याभिमतं जिनैः ॥९८ ॥
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अध्यात्मसार