________________
स्वरूपं तु कर्तव्यं, ज्ञातव्यं केवलं स्वतः। दीपेन दीप्यते ज्योतिर्न त्वपूर्वं विधीयते ॥११॥
भावार्थ : आत्मा को अपना स्वरूप करना (कर्तव्य) नहीं होता, केवल स्वतः जानना (ज्ञातव्य) होता है । दीपक से ज्योति (प्रकाश) प्रदीप्त होती है, परन्तु उससे कोई अपूर्व ज्योति प्रगट नहीं की जा सकती ॥९१॥ अन्यथा प्रागनात्मा स्यात् स्वरूपाननुवृत्तितः । न च हेतुसहस्त्रेणाऽप्यात्मा स्यादनात्मनः ॥१२॥
भावार्थ : अन्यथा (पूर्वोक्त मत को न मानने पर) आत्मा अपने रूप की उत्पत्ति से पहले स्वरूप के असम्बन्ध के कारण अनात्मा (जड़) हो जायगी। और उस अनात्मा का आत्मत्व हजारों हेतुओं से भी सिद्ध (प्राप्त) नहीं होगा ॥९२। नये तेनेह नो कर्त्ता किन्त्वात्मा शुद्धभावकृत् । उपचारात्तु लोकेषु तत्कर्तृत्वमपीष्यताम् ॥१३॥
भावार्थ : इसलिए इस नय से आत्मा कर्ता नहीं है, परन्तु शुद्ध भाव का धारण करने वाला है और लोकोपचार से उसका (आत्मा का) कर्तृत्व भी भले ही मानें, कोई हर्ज नहीं ॥१३॥ उत्पत्तिमात्मधर्माणां विशेषग्राहिणो जगुः । अव्यक्तिरावृतेस्तेषां नाभावादिति का प्रभा ? ॥१४॥ २४८
अध्यात्मसार